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________________ ३२२ जैन धर्म-दर्शन है। केवल उपमान को ही प्रत्यभिज्ञान का पर्यायवाची मानना ठीक नहीं। सादृश्य, वैलक्षण्य, भेद, अभेद आदि सब का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है। तर्क-उपलम्भानुपलम्भनिमित्त व्याप्तिज्ञान तर्क है। इसे ऊह भी कहते हैं।' उपलम्भ का अर्थ है लिंग के सद्भाव से साध्य के सद्भाव का ज्ञान । धूम लिंग है और अग्नि साध्य है। धम के सद्भाव के ज्ञान से अग्नि के सद्भाव का ज्ञान करना उपलम्भ है। अनुपलम्भ का अर्थ है साध्य के असद्भाव से लिंग के असद्भाव का ज्ञान । 'जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम नहीं हो सकता' इस प्रकार का निर्णय अनुपलम्भ है। उपलम्भ और अनुपलम्भरूप जो व्याप्ति है उससे उत्पन्न होने वाला शान तर्क है। 'इसके होने पर ही यह होता है, इसके अभाव में यह नहीं हो सकता' इस प्रकार का ज्ञान तर्क है। तर्क का दूसरा नाम ऊह है। प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय सीमित है। जिस विषय से प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है उसी विषय तक वह सीमित रहता है। त्रिकालविषयक व्याप्तिज्ञान उससे उत्पन्न नहीं हो सकता। साधारण प्रत्यक्ष का विषय वर्तमानकालीन सीमित पदार्थ हैं। किसी कालिक निर्णय पर पहुंचना प्रत्यक्ष के बस की बात नहीं। इसके लिए तो किसी स्वतन्त्र प्रमाण की आवश्यकता है जो त्रिकालविषयक निर्णय पर पहुंचने में समर्थ हो। यह प्रमाण तर्क है। अनुमान भी तर्क का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि अनुमान का आधार ही तर्क है। जब तक तर्क से व्याप्तिज्ञान न हो जाय १. उपलम्भानुपलम्भनिमितं व्याप्तिज्ञानमूहः । -प्रमाणमीमांसा, १. २. ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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