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________________ ११० वन्दन से असंयम का अनुमोदन, अनाचार का समर्थन, दोषों का पोषण और पाप कर्म का बन्धन होता है । इस प्रकार का वन्दन केवल कायक्लेश है । अवन्द्य को वन्दन करने से वन्दन करने वाले एवं वन्दन कराने वाले दोनों का पतन होता है । आचारशास्त्र प्रमादवश शुभ प्रवृत्ति से च्युत होकर अशुभ प्रवृत्ति को प्राप्त होने के बाद पुनः शुभ प्रवृत्ति को प्राप्त होना प्रतिक्रमण है ।' मन, वचन अथवा काय से कृत, कारित अथवा अनुमोदित पापों की निवृत्ति के लिए आलोचना करना, पश्चात्ताप करना तथा अशुद्धि का त्याग कर पुनः शुद्धि प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन एवं परिग्रहरूप जिन पापकर्मों का निर्ग्रन्थ श्रमण के लिए प्रतिषेध किया गया है उनका प्रमादवश उपार्जन करने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए । सामायिक, स्वाध्याय आदि जिन शुभ प्रवृत्तियों का सर्वविरत संयमी के लिए विधान किया गया है उनका आचरण न करने पर भी प्रतिक्रमण करना चाहिए, क्योंकि अकर्तव्य कर्म को करना जैसे पाप है वैसे ही कर्त्तव्य कर्म को न करना भी पाप ही है । प्रतिक्रमण केवल क्रिया तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उससे वस्तुतः दोष-शुद्धि होनी चाहिए। तभी प्रतिक्रमण करना सार्थक कहा जाएगा । काय के उत्सर्ग अर्थात् शरीर के त्याग को कायोत्सर्ग कहते हैं । यहाँ शरीरत्याग का अर्थ है शरीरसम्बन्धी ममता का त्याग । शारीरिक ममत्व को छोड़कर आत्म-स्वरूप में लीन होने का नाम कायोत्सर्ग है। साधक जब बहिर्मुखवृत्ति का १. आवश्यक - चूर्णि ( उत्तर भाग ), पृ० ५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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