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जैन धर्म-दर्शन में ईहा के लिए निम्न शब्द आते हैं-आयोगणता, मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता, विमर्ष ।' उमास्वाति ने ईहा, ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा का प्रयोग किया है। अवग्रह से गुजरते हुए ईहा तक कैसे पहुंचते हैं, इसे समझने के लिए पुनः शब्द का उदाहरण लेते हैं। अवग्रह में इतना ज्ञान हो जाता है कि कहीं से शब्द सुनाई दे रहा है । शब्द सुनने पर व्यक्ति सोचता है कि किसका शब्द है ? कौन बोल रहा है ? स्त्री है.या पुरुष ? इसके बाद स्वर की तुलना होती है। स्वर मीठा
और आकर्षक है, इसलिए किसी स्त्री का होना चाहिए। पुरुष का स्वर कठोर एवं रूखा होता है। यह स्वर पुरुष का नहीं हो सकता । ईहा में ज्ञान यहाँ तक पहुंच जाता है।
ईहा संशय नहीं है क्योंकि संशय में दो पलड़े बराबर रहते हैं। ज्ञान का किसी एक ओर झुकाव नहीं होता। 'पुरुष है या स्त्री' ? इसका जरा भी निर्णय नहीं होता। न तो पुरुष की ओर ज्ञान झुकता है, न स्त्री की ओर। ज्ञान की दशा त्रिशंकु-सी रहती है। ईहा में ज्ञान एक ओर झुक जाता है। अवाय में जिसका निश्चय होने वाला है उसी ओर ज्ञान का झुकाव हो जाता है। यह स्त्री का शब्द होना चाहिए क्योंकि इसकी यह विशेषता है'-इस प्रकार का ज्ञान ईहा है । यद्यपि ईहा मे पूर्ण निर्णय नहीं हो पाता तथापि ज्ञान निर्णय की ओर झुक अवश्य जाता है। संशय में ज्ञान किसी ओर नहीं झुकता। संशय ईहा के पहले होता है। ईहा हो जाने पर संशय समाप्त हो जाता है।
१. ३१. २. तत्त्वाभाष्य, १. १५.
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