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ज्ञानमीमांसा
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है क्योंकि वह आवृत वस्तु का ग्रहण नहीं करता - जैसे त्वगिन्द्रिय | यह ठीक नहीं, क्योंकि चक्षु काच, अभ्र, स्फटिक आदि से आवृत अर्थ का ग्रहण करता है । यदि चक्षु अप्राप्यकारी है तो वह व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट अर्थ का भी ग्रहण कर लेगा । यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि चुम्बक अप्राप्यकारी होते हुए भी अमुक सीमा के अन्दर रहने वाले लोहे को ही पकड़ता है, व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट को नहीं । चक्षु स्वयं प्राप्यकारी नहीं है अपितु उसकी तैजस रश्मियाँ प्राप्यकारी हैं । यह भी ठीक नहीं, क्योंकि हमें यह भी अनुभव नहीं होता कि चक्षु तेजस है । यदि चक्षु तैजस होता तो चक्षुरिन्द्रिय का स्थान उष्ण होता । नक्तंचर प्राणियों के नेत्रों में रात को रश्मियाँ दिखाई देती हैं अतः चक्षु रश्मियुक्त है, यह धारणा ठीक नहीं । अतैजस द्रव्य में भी भासुररूप देखा जाता है - जैसे मणि आदि । अतः चक्षु प्राप्यकारी नहीं है । अप्राप्यकारी होते हुए भी तदावरण के क्षयोपशम से वस्तु का ग्रहण होता है । इसलिए मन और चक्षु से व्यंजनावग्रह नहीं होता । श्रोत्र, घ्राण, रसन और स्पर्श इन चार इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होता है ।
अर्थावग्रह संयोगरूप नहीं है अपितु सामान्यज्ञानरूप है । चक्षू और मन से अर्थावग्रह होता है क्योंकि इन दोनों का का विषय-ग्रहण सीधा सामान्यज्ञानरूप होता है । इस प्रकार अर्थावग्रह पांच इन्द्रियाँ और छठा मन - इन छः से होता है । ईहा अवाय और धारणा भी पाँचों इन्द्रियों और मन पूर्वक होते हैं । ईहा :
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अवग्रह के बाद ज्ञान ईहा में परिणत होता है । अवगृहीतार्थ को विशेष रूप से जानने की इच्छा ईहा है ।" नन्दीसूत्र
१. अवगृ हीतार्थ विशेषकांक्षण मीहा । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.८.
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