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जैन धर्म-दर्शन हो पाती। दो-चार बार पुकारने पर उसके कान में काफी शब्द एकत्र हो जाते हैं । तभी उसे यह ज्ञान होता है कि मुझे कोई बुला रहा है। यह ज्ञान पहले शब्द के समय इतना अस्पष्ट
और अव्यक्त होता है कि उसे इस बात का पता नहीं लगता कि कोई बुला रहा है । जब शब्दों का जलबिन्दुओं की तरह काफी मात्रा में संग्रह हो जाता है तब उसे यह ज्ञान होता है कि मुझे कोई पुकार रहा है। प्रथम कोटि का व्यक ज्ञान अर्थावग्रह है। व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह में अव्यक्तता और व्यक्तता का भेद है। सामान्यात्मक ज्ञान अवग्रह है। इसी ज्ञान के विकास-क्रम के दो रूप हैं। प्रथम रूप अव्यक्त ज्ञानात्मक है । यही व्यंजनावग्रह है। द्वितीय रूप व्यक्त ज्ञानात्मक है। यही अर्थावयह है। ____ क्या व्यंजनावग्रह सभी इन्द्रियों से होता है ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता।' चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होता? क्योंकि ये दोनों अप्राप्यकारी हैं। व्यंजनावग्रह के लिए अर्थ और इन्द्रियों का संयोग अपेक्षित है। संयोग के लिए प्राप्यकारित्व अनिवार्य है। चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं, अतः इनके साथ अर्थ का संयोग नहीं होता। संयोग न होने से व्यंजनावग्रह नहीं होता। मन को अप्राप्यकारी माना जा सकता है, किंतु चक्षु अप्राप्यकारी कैसे है ? चक्षु अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह स्पृष्ट अर्थ का ग्रहण नहीं करता । यदि प्राप्यकारी होता तो त्वगिन्द्रिय के समान स्पृष्ट अंजन का ग्रहण करता। चूकि वह ग्रहण नहीं करता अतः अप्राप्यकारी है । कोई यह कह सकता है कि चक्षु प्राप्यकारी १. न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ।-तत्त्वार्थसूत्र, १. १६.
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