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जैन धर्म-दर्शन
वंश-परम्परा से होता है। इस प्रकार माता-पिता के माध्यम से आनेवाले अच्छे-बुरे शारीरिक गुणों के लिए सन्तान का कर्म प्रत्यक्ष रूप से न सही, परोक्ष रूप से अवश्य उत्तरदायी होता है । वंश-परम्परा के सद्गुण-दुर्गुण सब में समान रूप से अवतरित नहीं होते। इसका मुख्य कारण व्यक्ति की अपनी कर्मसम्पत्ति है। जिसकी कर्मसम्पत्ति अपेक्षाकृत जितनी अधिक समृद्ध अर्थात् शुभ होगी उसका गोत्र कर्म उतना ही अधिक उच्च होगा तथा जिसकी कर्मसम्पत्ति अपेक्षाकृत जितनी अधिक असमृद्ध अर्थात् अशुभ होगी उसका गोत्र कर्म भी उतना ही अधिक नीच होगा।
जैसे मनुष्य आदि गतियों, पंचेन्द्रिय आदि जातियों, औदारिक आदि शरीरों एवं इसी प्रकार के अन्य शारीरिक लक्षणों से नाम कर्म की पहचान होती है वैसे गोत्र कर्म की पहचान के क्या शारीरिक लक्षण हैं ? रूप, रंग, धर्म, जाति, वर्ण आदि से उच्च अथवा नीच गोत्र का पता नहीं लग सकता क्योंकि किसी भी रूप, किसी भी रंग, किसी भी धर्म, किसी भी जाति, किसी भी वर्ण का व्यक्ति उच्च गोत्र का भी हो सकता है और नीच गोत्र का भी। किसी रंग-रूपविशेष या वर्ण-जातिविशेष को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि इस रंग-रूप वाला या इस वर्ण-जाति वाला व्यक्ति उच्च गोत्र का है एवं तदितर व्यक्ति नीच गोत्र का। रंग और रूप का सम्बन्ध नाम कर्म से है तथा वर्ण, जाति, धर्म आदि का सम्बन्ध शरीर से न होकर सामाजिक, साम्प्रदायिक एवं शास्त्रीय व्यवस्थाओं और मान्यताओं से है। अमुक समाज अथवा अमुक देश में जिस वर्ण अथवा जाति को नीच समझा जाता है, अन्यत्र उसे वैसा नहीं माना जाता। इतना ही नहीं, उस समाज अथवा देश में भी
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