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जैन धर्म-दर्शन नहीं आता । वह प्रेम एक विलक्षण प्रकार का प्रेम होता है, जो राग और द्वेष दोनों की सीमा से परे होता है। राग और द्वष साथ-साथ चलते हैं, किन्तु प्रेम अकेला ही चलता है।
शमन का अर्थ है-शान्त करना । जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को शान्त करने का प्रयत्न करता है, अपनी वासनाओं का दमन करने की कोशिश करता है और अपने इस प्रयत्न में बहुत-कुछ सफल होता है वह श्रमण-संकृति का सच्चा अनुयायी है। हमारी ऐसी वृत्तियाँ जो उत्थान के स्थान पर पतन करती हैं, शान्ति के बजाय अशान्ति उत्पन्न करती हैं, उत्कर्ष की जगह अपकर्ष लाती हैं वे जीवन को कभी सफल नहीं होने देतीं। ऐसी अकुशल वृत्तियों को शान्त करने से ही सच्चे लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है । इस प्रकार की कुवृत्तियों को शान्त करने से ही आध्यात्मिक विकास हो सकता है। श्रमग-संस्कृति के मूल में श्रम, सम और शम-ये तीनों तत्त्व विद्यमान हैं। मैन परम्परा का महत्व :
श्रमण-संस्कृति की अनेक धाराओं में जैन परम्परा का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह हम देख चुके हैं कि श्रमणसंस्कृति की दो मुख्य धाराएं आज भी जीवित हैं। उनमें से बौद्ध परम्परा का भारतीय जीवन से विशेष सम्बन्ध नहीं रह गया है । यद्यपि र सका थोड़ा-बहुत प्रभाव किसी रूप में आज भी मौजूद है और आगे भी रहेगा, किन्तु भारतीय जीवन के निर्माण और परिवर्तन में जैन परम्परा का जो हाथ अतीत में रहा है, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, वह कुछ विलक्षण है। यद्यपि आज की प्रचलित जैन विचारधारा भारत के बाहर अपना प्रभाव न जमा सकी, किन्तु भारतीय विचारधारा और
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