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________________ २६४ जैन धर्म-दर्शन परिचित हैं उनके लिए तो शास्त्रीय व्याख्यान ही ग्राह्य है । शास्त्रीय परम्परा के अनुसार आत्मा और इतर का भेद ही वास्तविक है ।" आत्मा और तदितर के भेद से दर्शन और ज्ञान में भेद माननेवाले आचार्यों की संख्या अधिक नहीं है । दर्शन के क्षेत्र में आगे बढ़ने वाले आचार्यों में से अधिकांश ने साकार और अनाकार के भेद को ही माना । वीरसेन की यह युक्ति ठीक है कि तत्त्व सामान्य विशेषात्मक है । कोई भी जैन दर्शन का आचार्य इस सिद्धान्त को अस्वीकृत नहीं करता । दर्शन को सामान्यग्राही मानने का अर्थ केवल इतना ही है कि उस उपयोग में सामान्य धर्म झलकता है जब कि ज्ञानोपयोग में विशेष धर्म की ओर प्रवृत्ति रहती है। इसका यह अर्थ नहीं कि सामान्य का तिरस्कार करके विशेष का ग्रहण किया जाता है अथवा विशेष को एक ओर फेंककर सामान्य का सम्मान किया जाता है । वस्तु में दोनों धर्मों के रहते हुए भी उपयोग किसी एक धर्म का मुख्य रूप से ग्रहण कर सकता है । यदि ऐसा न होता तो हम सामान्य और विशेष का भेद ही नहीं कर पाते । उपयोग में धर्मों का भेद हो सकता है, वस्तु में नहीं | उपयोग में सामान्य और विशेष का भेद किसी भी तरह व्यभिचारी नहीं है । ज्ञान और दर्शन में क्या भेद है, इसका विवेचन हो चुका । अब यह देखेंगे कि काल की दृष्टि से दोनों का क्या सम्बन्ध है ? जहाँ तक छद्मस्थ अर्थात् सामान्य व्यक्ति का प्रश्न है, सभी आचार्य एकमत हैं कि दर्शन और ज्ञान युगपद् न होकर क्रमश: होते हैं। हाँ, केवली के प्रश्न को लेकर आचार्यों में मतभेद है । १. वही. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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