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________________ ज्ञानमीमांसा २६३ जानते । सामान्य और विशेष दोनों पदार्थ के धर्म हैं । एक के अभाव में दूसरा नहीं रह सकता। दर्शन और ज्ञान इन दोनों धर्मों का ग्रहण करते हैं । केवल सामान्य या केवल विशेष का ग्रहण नहीं हो सकता। सामान्य-व्यतिरिक्त विशेष का ग्रहण करनेवाला ज्ञान अप्रमाण है। इसी प्रकार विशेष-व्यतिरिक्त सामान्य का ग्रहण करनेवाला दर्शन मिथ्या है।' इसी मत का समर्थन करते हुए ब्रह्मदेव कहते हैं कि ज्ञान और दर्शन का दो दृष्टियों से विचार करना चाहिए । एक तर्कदृष्टि है और दूसरी सिद्धान्तदृष्टि है। दर्शन को सामान्य ग्राही (सत्ताग्राही) मानना तर्कदृष्टि से ठीक है। सिद्धान्तदृष्टि अर्थात् आगमदृष्टि से आत्मा का सच्चा उपयोग दर्शन है और बाह्य अर्थ का ग्रहण ज्ञान है। . व्यवहारदृष्टि से ज्ञान और दर्शन का भेद है। निश्चयदृष्टि से ज्ञान और दर्शन अभिन्न हैं। आत्मा ज्ञान और दर्शन दोनों का आश्रय है। आत्मा की दृष्टि से दोनों में कोई भेद नहीं। ज्ञान और दर्शन का विशेष और सामान्य के आधार पर जो भेद है उसका स्पष्टीकरण दूसरी तरह से भी किया गया है। अन्य दर्शनवालों को समझाने के लिए सामान्य और विशेष का प्रयोग है। जो जैन तत्त्वज्ञान से १. षट्खण्डागम पर धवला टोका, १.१.४. २. एवं तर्काभिप्रायेण सत्तावलोकनदर्शनंव्याख्यातम् । अत ऊर्ग सिद्धान्ताभिप्रायेण कथ्यते । तथाहि उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं यत् प्रयलं तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तद्दर्शनं भण्यते। तदनन्तरं यद बहिविषये विकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तज्ज्ञानमितिवात्तिकम् । -द्रव्यसंग्रह-वृत्ति, गा० ४४. ३. वही, ४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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