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________________ २६२ जन धर्म-दर्शन की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। सत्ता में भेद होते ही विशेष प्रारम्भ हो जाता है । जैन दर्शन में दर्शन और ज्ञान की मान्यता बहुत प्राचीन है। कर्मों के आठ भेदों में पहले के दो भेद ज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित हैं । कर्मविषयक मान्यता जितनी प्राचीन है, ज्ञान और दर्शन की मान्यता भी उतनी ही प्राचीन है। ज्ञान को आच्छादित करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण कर्म है। दर्शन की शक्ति को आवृत्त करने वाले कर्म को दर्शनावरण कर्म कहते हैं। इन दोनों प्रकार के आवरणों के क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव होता है । आगमों में ज्ञान के लिए 'जाणइ ' ( जानाति ) अर्थात् जानता है और दर्शन के लिए 'पास' ( पश्यति) अर्थात् देखता है का प्रयोग हुआ है । 1 साकार और अनाकार के स्थान पर एक मान्यता यह भी देखने में आती है कि बहिर्मुख उपयोग ज्ञान है और अन्तर्मुख उपयोग दर्शन है | आचार्य वीरसेन लिखते हैं कि सामान्यविशेषात्मक बाह्यार्थ का ग्रहण ज्ञान है और तदात्मक आत्मा का ग्रहण दर्शन है । ' तत्त्व सामान्य विशेषात्मक है। चाहे आत्मा हो, चाहे आत्मा से इतर पदार्थ हों - सब इसी लक्षण से युक्त हैं । दर्शन और ज्ञान का भेद यही है कि दर्शन सामान्यविशेषात्मक आत्मा का उपयोग है - स्वरूपदर्शन है, जब कि ज्ञान आत्मा से इतर प्रमेय का ग्रहण करता है । इसके अतिरिक्त दर्शन और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है । जो लोग यह मानते हैं कि सामान्य का ग्रहण दर्शन है और विशेष का ग्रहण ज्ञान है वे इस मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान का स्वरूप नहीं १. सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानम्, तदात्मक स्वरूपग्रहणं दर्शन मिति सिद्धम् । - षट्खण्डागम पर धवला टीका, १. १.४. Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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