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________________ सापेक्षवाद ३८६ एकता के सूत्र में बाँधने वाला कोई-न-कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिए जो स्वयं निरपेक्ष हो । ऐसे निरपेक्ष तत्त्व की सत्ता मानने पर स्याद्वाद का यह सिद्धान्त कि प्रत्येक वस्तु सापेक्ष है, खण्डित हो जाता है । स्याद्वाद जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही देखने के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है । सब पदार्थों या धर्मों में एकता है, इसे स्याद्वाद मानता है । भिन्न-भिन्न वस्तुओं में अभेद मानना स्याद्वाद को अभीष्ट है । स्याद्वाद यह नहीं कहता कि अनेक धर्मो में कोई एकता नहीं है । विभिन्न वस्तुओं को एक सूत्र में बांधने वाला अभेदात्मक तत्त्व अवश्य है, किन्तु ऐसे तत्त्व को मानने का यह अर्थ नहीं कि स्याद्वाद एकान्तवाद हो गया । स्याद्वाद एकान्तवाद तब होता जब वह भेद का खण्डन करता - अनेकता का तिरस्कार करता । अनेकता में एकता मानना स्याद्वाद को प्रिय है, किन्तु अनेकता का निषेध करके एकता को स्वीकार करना उसकी मर्यादा से बाहर है | 'सर्वमेकं सदविशेषात' अर्थात् सब एक है, क्योंकि सब सत् है - इस सिद्धान्त को मानने के लिए स्याद्वाद तैयार है, किन्तु अनेकता का निषेध करके नहीं अपितु उसे स्वीकार करके । एकान्तवाद अनेकता का निषेध करता है - अनेकता को अयथार्थ मानता है-भेद को मिथ्या कहता है, जब कि अनेकान्तवाद एकता के साथ-साथ अनेकता को भी यथार्थ मानता है । एकतामूलक यह तत्त्व एकान्तरूप से निरपेक्ष है, यह नहीं कहा जा सकता । एकता अनेकता के बिना नहीं रह सकती और अनेकता एकता के अभाव में नहीं रह सकती । एकता और अनेकता इस प्रकार मिली हुई हैं कि एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में एकता को सर्वथा निरपेक्ष कहना युक्तियुक्त नहीं । एकता अनेकताश्रित है और अनेकता Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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