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________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य भाष्यकारों में संघदासगणि और जिनभद्रगणि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनका समय विक्रम की सातवीं शती है। जैन आगमों के निम्नलिखित आठ महाकाय भाष्य उपलब्ध हैं : १. विशेषावश्यकभाष्य, २. बृहत्कल्पलवुभाष्य, ३. बृहत्कल्पबृहद्भाष्य, ४.पंचकल्पमहाभाष्य, ५. व्यवहारभाष्य, ६. निशीथभाष्य, ७. जीतकल्पभाष्य और ८. ओघनियुक्तिमहाभाष्य । इनमें से बृहस्कल्पलघुभाष्य तथा पंचकल्पमहाभाष्य के प्रणेता संघदासगणि हैं एवं विशेषावश्यकभाष्य के रचयिता जिनभद्रगणि हैं । इन महाकाय भाष्यों के अतिरिक्त आवश्यक, ओधनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, दशव कालिक आदि पर लघुभाष्य भी हैं। चूर्णिकारों में जिनदासगणि महत्तर विशेष प्रसिद्ध हैं। इनका समय विक्रम की आठवीं शती है । निम्नोक्त आगमों की चूणियाँ उपलब्ध हैं : १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ४. जीवाजीवाभिगम, ५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६. प्रज्ञापना, ७. दशाश्रुतस्कन्ध, ८. बृहत्कल्प, ६. व्यवहार, १०. निशीथ, ११. पंचकल्प, १२. जीतकल्प, १३. आवश्यक, १४. दशवैकालिक, १५. उत्तराध्ययन, १६. पिण्डनियुक्ति, १७. नन्दी और १८. अनुयोगद्वार । निशीथसूत्र की विशेषचूणि ही प्राप्त है। बृहत्कल्प की चूणि और विशेषचूणि दोनों ही उपलब्ध हैं। दशवकालिक पर भी दो चूणियाँ हैं : एक अगस्त्यसिंहकृत तथा दूसरी जिनदासकृत। अनुयोगद्वार में जो अंगुल पद है उसपर जिनभद्र ने अलग से चूणि लिखी है । चूणिसाहित्य सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभद्र का विशेष महत्त्व है। जैन आगमों पर प्राचीनतम संस्कृत टीकाएँ इन्हीं की हैं। इनका समय वि० सं० ७५७ में ८२७ के बीच का है । हरिभद्र ने प्राकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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