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________________ ५८ जैन धर्म-दर्शन चूणियों के आधार से ही टीकाएँ लिखी हैं। बीच-बीच में दार्शनिक दृष्टि का विशेष उपयोग किया है। हरिभद्र के बाद शीलांकसूरि ने संस्कृत टीकाएं लिखीं। इनका काल दसवीं शताब्दी है । इनके बाद टीकाकार शान्त्याचार्य हुए। इन्होंने उत्तराध्ययन पर बृहत् टीका लिखी। इनके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव हुए। इन्होंने नव अंगों पर टीकाएं लिखीं। इनका समय वि० सं० १०८८ से ११३५ तक का है। इसी समय मलधारी हेमचन्द्र भी हुए जिन्होंने विशेषावश्यकभाष्य पर वृत्ति लिखी। आगमों पर संस्कृत टीकाएं लिखनेवालों में मलयगिरि का विशेष स्थान है । इनकी टीकाएं दार्शनिक चर्चायुक्त सुन्दर भाषा में हैं। प्रत्येक विषय पर सुस्पष्ट ढंग से लिखने में इन्हें अच्छी सफलता मिली है । ये बारहवीं शताब्दी के विद्वान् थे। आगमों की संस्कृत व्याख्याओं की बहुलता होते हुए भी बाद के आचार्यों ने जनहित की दृष्टि से लोकभाषाओं में भी व्याख्याएं लिखना आवश्यक समझा । परिणामतः तत्कालीन अपभ्रंश अर्थात् प्राचीन गुजराती में कुछ आचार्यों ने सरल एवं सुबोध बालावबोध लिखे । इस प्रकार के बालावबोध लिखने वालों में विक्रम की सोलहवीं शती में विद्यमान पार्श्वचन्द्रगणि एवं अठारहवीं शती में विद्यमान लोंकागच्छीय मुनि धर्मसिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। मुनि धर्मसिंह ने २७ आगमों पर बालावबोध-टबे लिखे हैं। हिन्दी व्याख्याओं में मुनि हस्तिमलकृत दशवैकालिक-सौभाग्यचन्द्रिका एवं नन्दीसूत्र-भाषाटीका; उपाध्याय आत्मारामकृत दशाश्रुतस्कन्ध-गणपतिगुणप्रकाशिका, दशवकालिक-आत्मज्ञानप्रकाशिका एवं उत्तराध्ययन-आत्मज्ञानप्रकाशिका; उपाध्याय अमरमुनिकृत आवश्यक-विवेचन (श्रमणसूत्र) आदि उल्लेखनीय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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