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जैन धर्म-दर्शन को साहित्य
कर्मप्राभूत और कषायप्राभृत
श्व ेताम्बर-सम्प्रदाय में आचारांगादि ग्रन्थ आगम-रूप से मान्य हैं जब कि दिगम्बर-सम्प्रदाय में कर्मप्राभृत एवं कषायप्राभृत को आगम माना जाता है । कर्मप्राभृत को महाकर्मप्रकृतिप्राभूत, आगम सिद्धान्त, षट्खण्डागम, परमागम, खण्डसिद्धान्त, षट्खण्डसिद्धान्त आदि नामों से जाना जाता है । कर्मविषयक प्ररूपणा के कारण इसे कर्मप्राभृत अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभूत कहा जाता है । आगमिक एवं सैद्धान्तिक ग्रन्थ होने के कारण इसे आगमसिद्धान्त, परमागम, खण्डसिद्धान्त आदि नाम दिये जाते हैं । चूंकि इसमें छ: खण्ड हैं इसलिए इसे षट्खण्डागम अथवा षट्खण्डसिद्धान्त कहा जाता है ।
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कर्मप्रभृत का उद्गमस्थान दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग है जो कि अब लुप्त है । दृष्टिवाद के पाँच विभाग हैं: परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । इनमें से पूर्वगत के चौदह भेद हैं । इन्हीं को चौदह पूर्व कहा जाता है । इनमें से अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व से कर्मप्राभृत नामक षट्खण्डागम उत्पन्न हुआ है ।
अग्रायणीय पूर्व के यथानिर्दिष्ट चौदह अधिकार हैं : १. पूर्वान्त, २. अपरान्त, ३. ध्रुव, ४. अध्रुव, ५. चयनलब्धि, ६. अपम, ७. प्रणिधिकल्प, ८. अर्थ, ६. भौम, १०. व्रतादिक, ११. सर्वार्थ, १२. कल्पनिर्याण, १३. अतीत सिद्ध-बद्ध और १४. अनागत सिद्ध-बद्ध । इनमें से पंचम अधिकार चयनलब्धि के बीस प्राभृत हैं जिनमें चतुर्थ प्राभृत कर्मप्रकृति है । इस कर्मप्रकृतिप्राभृत से ही षट्खण्डसिद्धान्त की उत्पत्ति हुई है ।
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षट्खण्डसिद्धान्त रूप क मंप्राभृत आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि की रचना है । इन्होंने प्राचीन कर्मप्रकृतिप्राभूत के
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