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जैन धर्म-दर्शन
उसी समय महावीर ( वर्धमान) के प्रमुख शिष्य गौतम इन्द्रभूति भी अपनी शिष्यमंडली के साथ श्रावस्ती पहुंचे और वहां के कोष्ठक नामक उद्यान में ठहरे ।
दोनों के शिष्य संयम एवं तप को धारण करनेवाले थे। उनके मन में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुए :
क्या हम लोगों के व्रत - नियम सही हैं या इन लोगों के ? क्या हम लोगों के सिद्धान्त ठीक हैं या इन लोगों के ? पार्श्व का चार व्रतों वाला धर्म ठीक है या महावीर का पाँच व्रतों वाला ? क्या वह नियम सही है जो साधुओं के लिए वस्त्रधारण का निषेध करता है अथवा वह जो मुनियों को वस्त्र धारण करने की अनुमति देता है ? दोनों का एक ही उद्देश्य होने पर भी यह अन्तर क्यों ?
अपने शिष्यों के विचारों को जानकर केशी तथा गौतम दोनों ने ही एक-दूसरे से मिलने का सोचा। गौतम तिन्दुक उद्यान में गये जहां केशी ने उनका स्वागत किया। गौतम की अनुमति से केशी ने प्रश्न उपस्थित किया- 'पार्श्व द्वारा उपदिष्ट चार व्रत हैं तथा वर्धमान ने पांच व्रतों का उपदेश दिया है । ये दोनों प्रकार के नियम एक ही उद्देश्य की पूर्ति करते हैं, तो आखिर दोनों के बीच अन्तर होने का क्या कारण है ? क्या आपको इस विषय में कोई संशय नहीं है ?' गौतम ने उत्तर दिया'प्रथम तीर्थंकर के समय के साधु सरल पर मन्द-बुद्धि थे, अन्तिम तीर्थ कर के समय के मुनि मन्द बुद्धि होने के साथ-साथ वक्र भी थे तथा इन दोनों के बीच होने वाले साधु सरल और समझदार थे । अतः धर्म का दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया।' इस उत्तर से केशी की वह शंका दूर हो गई। उन्होंने
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