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________________ ८० जैन धर्म-दर्शन मल्लवादी: मल्लवादी सिद्धसेन के समकालीन थे । उनका नाम तो कुछ और ही था किन्तु वाद में कुशल होने के कारण उन्हें मल्लवादी पद से विभूषित किया गया और यही नाम प्रचलित भी हो गया। उनकी सन्मतितर्क की टीका बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह टीका इस समय उपलब्ध नहीं है। उनका प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ ग्रन्थ नयचक्र हैं। आज तक के ग्रन्थों में यह एक अद्भुत ग्रन्थ है। तत्कालीन सभी दार्शनिक वादों को सामने रखते हुए उन्होंने एक वादचक्र बनाया। उस चक्र का उत्तरउत्तरवाद, पूर्व-पूर्ववाद का खण्डन करके अपने-अपने पक्ष को प्रबल प्रमाणित करता है। प्रत्येक पूर्ववाद अपने को सर्वश्रेष्ठ एवं निर्दोष समझता है। वह यह सोचता ही नहीं कि उत्तरवाद मेरा भी खण्डन कर सकता है । इतने में तुरन्त उत्तरवाद आता है और पूर्ववाद को पछाड़ देता है। अन्तिम वाद पुनः प्रथम वाद से पराजित होता है। अन्त में कोई भी वाद अपराजित नहीं रह जाता। पराजय का यह चक्र एक अद्भुत शृंखला तैयार करता है । कोई भी एकान्तवादी इस चक्र के रहस्य को नहीं समझ सकता । एक तटस्थ व्यक्ति ही इस चक्र के भीतर रहनेवाले प्रत्येक वाद की सापेक्षिक सबलता और निर्बलता मालूम कर सकता है। यह बात तभी हो सकती है जब उसे पूरे चक्र का रहस्य मालम हो। चक्र नाम देने का उद्देश्य भी यही है कि उस चक्र के किसी भी वाद को प्रथम रखा जा सकता है और अन्त में जाकर वह अपने अन्तिम वाद का खण्डन कर सकता है। इस प्रकार प्रत्येक वाद का खण्डन हो जाता है। आचार्य का वास्तविक उद्देश्य यही है कि प्रत्येक बाद अपनी-अपनी दृष्टि से सच्चा है, परन्तु ज्योंही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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