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जीन धर्म-दर्शन का साहित्य
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का आग्रह करता है त्योंही दूसरा
वह 'मैं ही सच्चा हूँ वाद आकर उसे समाप्त कर देता है । प्रत्येक वाद की अपनी-अपनी योग्यता और अपना-अपना क्षेत्र है । वह अपने क्षेत्र में सच्चा है । इस प्रकार अनेकांत दृष्टि का आश्रय लेने से ही सभी वाद सुरक्षित रह सकते हैं । अनेकान्त के बिना कोई भी वाद सुरक्षित नहीं । अनेकान्तवाद परस्पर विरुद्ध प्रतिभासित होने वाले सभी वादों का निर्दोष समन्वय कर देता है । उस समन्वय में सभी वादों को उचित स्थान प्राप्त हो जाता है । कोई भी वाद बहिष्कृत घोषित नहीं किया जाता। जिस प्रकार ब्रेडले के 'सम्पूर्ण' (Whole ) में सारे प्रतिभासों को अपना-अपना स्थान मिल जाता है उसी प्रकार अनेकान्तवाद में सारे एकान्तवाद समां जाते हैं। इससे यही फलित होता है कि एकान्तवाद तभी तक मिथ्या है जब तक वह निरपेक्ष है । सापेक्ष होने पर वही एकान्त सच्चा हो जाता हैसम्यक् हो जाता है । सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त में यही भेद है कि सम्यक् एकान्त सापेक्ष होता है जबकि मिथ्या एकान्त निरपेक्ष होता है । नय में सम्यक् एकान्त अच्छी तरह रह सकते हैं । मिथ्या एकान्त दुर्नय है-नयाभास है इसीलिए वह झूठा है - असम्यक है ।
सिंहगणि
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सिंहगणि ने नयचक्र पर १८००० श्लोक - प्रमाण एक टीका लिखी। इस टीका में सिंहगणि क्षमाश्रमण की प्रतिभा अच्छी तरह झलकती है । इसमें सिद्धसेन के ग्रन्थों के उद्धरण हैं किन्तु. समन्तभद्र का कोई उल्लेख नहीं । इसी तरह दिङ्नाग और भर्तृहरि के कई उद्धरण हैं किन्तु धर्मकीर्ति का कोई उद्धरण नहीं । मल्लवादी और सिंहगणि दोनों श्व ेताम्बराचार्य थे ।
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