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________________ ८२ जैन धर्म-दर्शन पात्रकेशरी : इसी समय एक तेजस्वी आचार्य दिगम्बर परम्परा में हुए जिनका नाम पात्रकेशरी था। इन्होंने प्रमाण-शास्त्र पर एक ग्रन्थ लिखा जिसका नाम त्रिलक्षणकदर्थन है । जिस प्रकार सिद्धसेन ने प्रमाण-शास्त्र पर न्यायावतार लिखा उसी प्रकार पात्रकेशरी ने उक्त ग्रन्थ लिखा । इस ग्रन्थ में दिङनाग-समर्थित हेतु के विलक्षण का खण्डन किया गया है । अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का अव्यभिचारी लक्षण हो सकता है, यह बात विलक्षणकदर्थन में सिद्ध की गई है। जैन न्यायशास्त्र में यही लक्षण मान्य है। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। . दिङनाग के विचारों ने भारतीय प्रमाणशास्त्र और न्यायशास्त्र को प्रेरणा दी। दिङनाग बौद्ध तर्कशास्त्र का पिता कहा जा सकता है। दिनांग की प्रतिभा के फलस्वरूप ही प्रशस्तपाद, उद्योतकर, कुमारिल, सिद्धसेन, मल्लवादी, सिंहगणि, पूज्यपाद, समन्तभद्र, ईश्वरसेन, अविद्धकर्ण आदि दार्शनिकों की रचनाएं हमारे सामने आई। इन रचनाओं में दिडनाग की मान्यताओं का खण्डन था। इसी संघर्ष के युग में धर्मकीर्ति पैदा हुए। उन्होंने दिङ्नाग पर आक्रमण करने वाले सभी दार्शनिकों को करारा उत्तर दिया और दिङ्नाग के दर्शन का नये प्रकाश में परिष्कार किया। धर्मकीति की परम्परा में अर्चट, धर्मोत्तर, शान्तरक्षित, प्रज्ञाकर आदि हुए जिन्होंने उनके पक्ष की रक्षा की। दूसरी ओर प्रभाकर, उम्बेक, व्योमशिव, जयन्त, सुमति, पात्रकेशरी, मंडन आदि बौद्धतर दार्शनिक हुए जिन्होंने बौद्ध पक्ष का खण्डन किया। इस संघर्ष के फलस्वरूप आठवीं-नवीं शताब्दी में जैन दर्शन के समर्थक अकलंक, हरिभद्र आदि दार्शनिक मैदान में आये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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