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कर्मसिद्धान्त
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होता है। इन तीनों का भाग समान रहता है। इससे भी अधिक भाग मोहनीय कर्म के हिस्से में जाता है। सबसे अधिक भाग वेदनीय कर्म को मिलता है। इन प्रदेशों का पुनः उत्तरप्रकृतियों-उत्तरभेदों में विभाजन होता है। प्रत्येक प्रकार के बद्ध कर्म के प्रदेशों की न्यूनता-अधिकता का यही आधार है।
पुण्य और पाप :
जैन कर्मवाद के अनुसार संसार का प्रत्येक कार्य कर्मजन्य नहीं होता । इसी प्रकार जगत् की प्रत्येक घटना कर्म के कारण नहीं होती। विश्व में होने वाले कार्यों एवं घटनाओं के विविध कारण होते हैं । कुछ घटनाएं पौद्गलिक होती हैं, कुछ कालजन्य, कुछ स्वाभाविक, कुछ आकस्मिक या संयोगवश एवं कुछ वैयक्तिक अथवा सामाजिक प्रयत्नजन्य होती हैं । जैन कर्मवाद विशुद्ध व्यक्तिवादी है। जिस प्रकार जैन तत्त्ववाद आत्मा को स्वदेह-परिमाण मानता है उसी प्रकार जैन कर्मवाद कर्म को स्वशरीर-प्रमाण मानकर उसे व्यक्ति तक ही सीमित रखता है। जैसे जीव अपने शरीर में बद्ध रहकर ही अपना कार्य करता है वैसे ही कर्म भी अपने शरीर की सीमा में रहकर ही अपना काम करता है। जैसे आत्मा सर्वव्यापक नहीं है वैसे ही कर्म भी सर्वव्यापक नहीं है । चूकि आत्मा एवं कर्म के कार्य अथवा गुण देह तक ही सीमित हैं अतः तदाधारभूत आत्मा एवं कर्म भी स्वदेह तक ही परिमित है। वस्तुतः आत्मा और कर्म (नोकर्मसहित) के मिश्रित रूप का नाम ही देह है । जैन कर्मवादी नैयायिकों की भांति कार्यमात्र के प्रति कर्म को कारण मानने के पक्ष में नहीं हैं। जैन कर्मवाद से विपरीत नैयायिक ईश्वर और कर्म को कार्यमात्र के प्रति साधारण कारण मानते हैं।
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