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जैन धर्म-दर्शन
४. मोहनीय सत्तर कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त ५. आयु
तैतीस सागरोपम ६. नाम बीस कोटाकोटि सागरोपम आठ मुहूर्त ७. गोत्र ८. अन्तराय तीस कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त
सांगरोपम आदि समय के विविध भेदों के स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए अनुयोगद्वार आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए। इससे जैनों की कालविषयक मान्यता का भी ज्ञान हो सकेगा। कर्मफल की तीव्रता-मन्दता : ___ कर्मफल की तीव्रता और मन्दता का आधार तन्निमित्तक कषायों की तीव्रता-मन्दता है। जो प्राणी जितना अधिक कषाय की तीव्रता से युक्त होगा उसके पापकर्म अर्थात् अशुभकर्म उतने ही प्रबल एवं पुण्यकर्म अर्थात् शुभकर्म उतने ही निर्बल होंगे। जो प्राणी जितना अधिक कषायमुक्त एवं विशुद्ध होगा उसके पुण्यकर्म उतने ही अधिक प्रबल एवं पापकर्म उतने ही अधिक दुर्बल होंगे। कर्म के प्रदेश :
प्राणी अपनी कायिक आदि क्रियाओं द्वारा जितने कर्मप्रदेश अर्थात् कर्मपरमाणुओं का संग्रह करता है वे विविध प्रकार के कर्मों में विभक्त होकर आत्मा के साथ बद्ध होते हैं। आयु कर्म को सबसे कम हिस्सा मिलता है। नाम कर्म को उससे कुछ अधिक हिस्सा मिलता है। गोत्र कर्म का हिस्सा भी नाम कर्म जितना ही होता है। उससे कुछ अधिक भाग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इनमें से प्रत्येक कर्म को प्राप्त
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