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कर्मसिद्धान्त
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का समय पर उपयोग न कर पाये तभी उसके वीर्यान्तराय कर्म का उदय समझना चाहिए। इस प्रकार अन्तराय कर्म का सम्बन्ध बाह्य पदार्थों की अप्राप्ति आदि से नहीं अपितु आन्तरिक शक्तियों के हनन से है। जो कर्म दान-लाभ-भोग-उपभोगवीर्यरूप आभ्यन्तरिक शक्तियों की अभिव्यक्ति में बाधक बनता है वह अन्तराय कर्म है।
आठ प्रकार के भूल कर्मों अथवा मूलप्रकृतियों के कुल एक सो अठावन भेद होते हैं जो इस प्रकार हैं :
१. ज्ञानावरणीय कर्म २. दर्शनावरणीय कर्म ३. वेदनीय कर्म ४. मोहनीय कर्म ५. आयु कर्म ६. नाम कर्म ७. गोत्र कर्म ८. अन्तराय कर्म
योग १५८ फर्म की स्थिति :
जैन कर्मग्रन्थों में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की विभिन्न स्थितियाँ (उदय में रहने का काल) बताई गई हैं जो इस प्रकार हैं : ___ कर्म अधिकतम समय
अधिकतम समय न्यूनतम समय १. ज्ञानावरणीय तीस कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय
बारह मुहूर्त
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