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________________ भोग और उपभोग से भोग कहते कहते हैं । आहार है। ४७६ जैन धर्म-दर्शन भोग और उपभोग में यही अन्तर है कि जिसका एक बार उपयोग किया जाता है उसे भोग कहते हैं तथा जिसका बारबार उपयोग किया जाता है उसे उपभोग कहते हैं। आहारादि भोग के अन्तर्गत हैं तथा वस्त्रादि उपभोग में समाविष्ट हैं। जिस अन्तराय कर्म का सम्बन्ध भोग से हो उसे भोगान्तराय तथा जिसका सम्बन्ध उपभोग से हो उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते हैं। जैसे दानान्तराय एवं लाभान्तराय कर्म का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की भावना अथवा इच्छाशक्ति से है वैसे ही भोगान्तराय एवं उपभोगान्त राय कर्म भी प्रत्यक्षतः प्राणी के आन्तरिक सामर्थ्य से सम्बद्ध है, बाह्य पदार्थ से नहीं। आहारादि की अनुकूलता एवं आवश्यकता होने पर भी जिसके उदय के कारण खाने-पीने की इच्छा न हो-रुचि न हो-शक्ति न हो उसे भोगान्तराय कर्म कहते हैं। इसी प्रकार वस्त्रादि से सम्बन्धित कर्म का नाम उपभोगान्तराय है। भोज्य एवं उपभोज्य पदार्थों की उपलब्धि एवं भोग-उपभोगान्तराय कर्म का क्षय-उपशम होते हुए भी बाह्य परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण भोगोपभोग में बाधा आ सकती है। वीर्य अर्थात् सामान्य सामर्थ्य या शक्ति। जिस कर्म के उदय से स्वस्थ एवं सबल शरीर धारण करते हुए भी प्राणी छोटा-सा कार्य करने में भी असमर्थ हो उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं । कभी-कभी ऐसा भी देखने में आता है कि प्राणी में शक्ति अर्थात् सामर्थ्य विद्यमान होते हुए भी बाहरी बाधाओं के कारण वह अपनी उस शक्ति का उपयोग नहीं कर पाता। इस स्थिति को वीर्यान्तराय कर्म का उदय नहीं समझना चाहिए। जब प्राणी के सामर्थ्य में आन्तरिक विघ्न उत्पन्न हो अर्थात् वह अपने कर्म ( अदृष्ट ) के कारण विद्यमान शक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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