________________
कर्म सिद्धान्त
कर्मों का निर्णय व्यक्ति की आन्तरिक भावनाओं, आकांक्षाओं, इच्छाओं, शक्तियों, कामनाओं के आधार पर करना चाहिए, बाह्य पदार्थो एवं परिस्थितियों के आधार पर नहीं ।
लभ्य वस्तु के विद्यमान रहने एवं अनुकूल अवसर के उपस्थित होने पर भी जिसके उदय के कारण प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न न हो उसे लाभान्तराय कर्म कहते हैं । लाभान्तराय कर्म का कार्य लाभ यानी प्राप्ति की इच्छा पैदा न होने देना मात्र है । इच्छा पैदा होने पर भी वस्तु की प्राप्ति होना या न होना अन्य परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है । देय वस्तु भी विद्यमान हो, दाता की भावना भी अनुकूल हो, प्राप्तकर्ता भी ग्रहण करन की इच्छावाला हो फिर भी अन्य परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होना कोई अनहोनी बात नहीं है । लाभान्तराय कर्म का कार्य प्राप्तकर्ता की आन्तरिक इच्छा का निरोध करना है, न कि प्राप्य वस्तु की प्राप्ति में बाधक बनना । बाह्य वस्तु की प्राप्ति अप्राप्ति का कर्म से प्रत्यक्ष सम्बन्ध तो है ही नहीं, परोक्ष सम्बन्ध भी अनिवार्यतः नहीं है । कर्म का उदय-क्षयउपशम होने पर भी अनिवार्यतः बाह्य वस्तु की प्राप्ति अप्राप्ति नहीं होती । परिस्थितियों की अनुकूलता प्रतिकूलता के अनुसार प्राप्ति अप्राप्ति में परिवर्तन हो सकता है । दानान्तराय कर्म का उदय न होने पर भी दानक्रिया में विघ्न आ सकता है, दानान्तराय कर्म का उदय होने पर भी दानक्रिया हो सकती है, लाभान्तराय कर्म का उदय न होने पर भी प्राप्तिक्रिया में बाधा आ सकती है, लाभान्तराय कर्म का उदय होने पर भी प्राप्तिक्रिया हो सकती है आदि ।
Jain Education International
४७५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary:org