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________________ सापेक्षवाद ४०३ है' इस वाक्य में जीव प्रधान है क्योंकि वह विशेष्य है और सुख गौण है क्योंकि वह विशेषण है । यहाँ धर्मी की प्रधान भाव से विवक्षा है और धर्म की गौण भाव से । १ कुछ लोग नैगम को संकल्पमात्रग्राही मानते हैं। जो कार्य किया जानेवाला है उस का संकल्पमात्र नैगमनय है । उदाहरण के लिए एक पुरुष कुल्हाड़ी लेकर जंगल में जा रहा है । मार्ग में कोई व्यक्ति मिलता है और पूछता है - 'तुम कहाँ जा रहे हो ?' वह पुरुष उत्तर देता है- 'मैं प्रस्थ लेने जा रहा हूँ ।' यहाँ पर वह पुरुष वास्तव में लकड़ी काटने जा रहा है । प्रस्थ तो बाद में बनेगा । प्रस्थ के संकल्प को दृष्टि में रखकर वह पुरुष उपर्युक्त ढंग से उत्तर देता है । उसका यह उत्तर नैगमनय की दृष्टि से ठीक है। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति किसी दुकान पर कपड़ा लेने के लिए जाता है और उससे कोई पूछता है कि तुम कहाँ जा रहे हो तो वह उत्तर देता है कि जरा कोट सिलाना है । वास्तव में वह व्यक्ति कोट के लिए कपड़ा लेने जा रहा है, न कि कोट सिलाने के लिए जा रहा है । कोट तो बाद में सिया जाएगा, किन्तु उस संकल्प को दृष्टि में रखते हुए वह कहता है कि कोट सिलाने जा रहा हूँ । संग्रह —सामान्य या अभेद का ग्रहण करने वाली दृष्टि संग्रह१. यद्वा नैकगमो नैगमः, धर्मधर्मिणोगुणप्रधानभावेन विषयीकरणात् । 'जीवगुणः सुखम्' इत्यत्र हि जीवस्याप्राधान्यम् विशेषणत्वात्, सुखस्य तु प्राधान्यम्, विशेष्यत्वात् । 'सुखी जीव:' इत्यादी तु जीवस्य प्राधान्यम्, न सुखादेः, विपर्ययात् । २. अर्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः । Jain Education International - नयप्रकाशस्तव वृत्ति, पृ० १०. -तत्त्वार्थ राजवार्तिक १.३.२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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