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जैन धर्म-दर्शन
नय है । स्वजाति के विरोधी के बिना समस्त पदार्थों का एकत्व में संग्रह करना संग्रह कहलाता है । यह हम जानते हैं कि प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है, भेदाभेदात्मक है। इन दो धर्मों में से सामान्य धर्म का ग्रहण करना और विशेष धर्म के प्रति उपेक्षाभाव रखना संग्रह्नय है । यह नय दो प्रकार का है - पर और अपर । पर संग्रह में सकल पदार्थों का एकत्व अभिप्रेत है । जीव-अजीवादि जितने भी भेद हैं, सबका सत्ता में समावेश हो जाता है। कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो सत् न हो । दूसरे शब्दों में, जीवाजीवादि सत्तासामान्य के भेद हैं। एक ही सत्ता विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होती है । जिस प्रकार नीलादि आकार वाले सभी ज्ञान ज्ञान- सामान्य के भेद हैं उसी प्रकार जीवादि जितने भी पदार्थ हैं, सब सत् हैं । पर संग्रह कहता है कि 'सब एक है, क्योंकि सब सत् हैं ।" सत्तासामान्य की दृष्टि से सबका एकत्व में अन्तर्भाव हो जाता है । अपर संग्रह द्रव्यत्वादि अपर सामान्यों का ग्रहण करता है । सत्तासामान्य, जो कि पर सामान्य अथवा महा सामान्य है, उसके सामान्यरूप अवान्तर भेदों का ग्रहण करना अपर संग्रह का कार्य है । सामान्य के दो प्रकार हैं-पर और अपर । पर सामान्य सत्तासामान्य को कहते हैं, जो प्रत्येक पदार्थ में रहता है । अपर सामान्य पर सामान्य के द्रव्य, गुण आदि भेदों में रहता है । द्रव्य में रहने वाली सत्ता पर सामान्य है और द्रव्य का जो द्रव्यत्वसामान्य है वह अपर सामान्य है ।
१. जीवाजीवप्रभेदा यदन्तर्लीनास्तदस्ति सत् ।
एकं यथा स्वनिर्भासि ज्ञानं जीवः स्वपर्ययः ॥
२. सर्वमेकं सदविशेषात् ।
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- लघीयस्त्रय, २. ५.३१.
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