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________________ सापेक्षवाद ४०५ इसी प्रकार गुण में सत्ता पर सामान्य है और गुणत्व अपर सामान्य है। द्रव्य के भी कई भेद-प्रभेद होते हैं। उदाहरण के लिए जीव द्रव्य का एक भेद है। जीव में जीवत्वसामान्य अपर सामान्य है। इस प्रकार जितने भी अपर सामान्य हो सकते हैं उन सवका ग्रहण करने वाला नय अपर संग्रह है। पर संग्रह और अपर संग्रह दोनों मिलकर जितने भी प्रकार के सामान्य या अभेद हो सकते हैं, सबका ग्रहण करते हैं। संग्रहनय सामान्य ग्राही दृष्टि है। व्यवहार-संग्रहनय द्वारा गृहीत अर्थ का विधिपूर्वक अवहरण करना व्यवहारनय है।' जिस अर्थ का, संग्रहनय ग्रहण करता है उस अर्थ का विशेष रूप से बोध कराना हो तब उसका पृथक्करण करना पड़ता है। संग्रह तो सामान्यमात्र का ग्रहण कर लेता है, किन्तु वह सामान्य किंरूप है, इसका विश्लेषण करने के लिए व्यवहार का आश्रय लेना पड़ता है। दूसरे शब्दो में, संग्रहगृहीत सामान्य का भेदपूर्वक ग्रहण करना व्यवहारनय है। यह नय भी उपयुक्त दोनों नयों की भाँति द्रव्य का ही ग्रहण करता है, किन्तु इसका ग्रहण भेदपूर्वक है, अभेदपूर्वक नहीं। इसलिए इसका अन्तर्भाव द्रव्याथिक नय में है, पर्यायाथिक नय में नहीं। इसकी विधि इस प्रकार है-पर संग्रह सत्तासामान्य का ग्रहण करता है। उसका विभाजन करते हुए व्यवहार कहता है-सत् क्या है ? जो सत् है वह द्रव्य है या गुण ? यदि वह द्रव्य है तो जीव द्रव्य है या अजीव द्रव्य ? केवल जीव द्रव्य कहने से भी काम नहीं चल सकता। वह जीव नारक है, देव है, मनुष्य हैं या तिर्यञ्च है ? इस प्रकार १. अतो विधिपूर्वकमत्रहरणं व्यवहारः । -तत्त्वार्थ राजवार्तिक, १.३३.६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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