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जैन धर्म-दर्शन
व्यवहारनय वहाँ तक भेद करता जाता है जहाँ पुनः भ ेद की सम्भावना न हो। इस नय का मुख्य प्रयोजन व्यवहार की सिद्धि है ।' केवल सामान्य के बोध से या कथन से हमारा - व्यवहार नहीं चल सकता। व्यवहार के लिए हमेशा भेदबुद्धि का आश्रय लेना पड़ता है । यह भ ेदबुद्धि परिस्थिति की अनुकूलता को दृष्टि में रखते हुए अन्तिम भ ेद तक बढ़ सकती है, जहाँ पुनः भ ेद न हो सके। दूसरे शब्दों में, वह अन्तिम विशेष का ग्रहण कर सकती है । व्यवहारगृहीत विशेष पर्यायों के रूप में नहीं होते अपितु द्रव्य के भेद के रूप में होते हैं । इसलिए व्यवहार का विषय भ ेदात्मक और विशेषात्मक होते हुए भी द्रव्यरूप है, न कि पर्यायरूप । यही कारण है कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों में से व्यवहार का समावेश द्रव्यार्थिक नय में किया गया है। नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीनों नयों का द्रव्यार्थिक नय में अन्तर्भाव होता है । शेष चार नय पर्यायार्थिक नय के भ ेद हैं ।
ऋजुसूत्र - भेद अथवा पर्याय की विवक्षा से जो कथन है वह ऋजुसूत्रनय का विषय है । जिस प्रकार संग्रह का विषय सामान्य अथवा अभेद है उसी प्रकार ऋजुसूत्र का विषय पर्याय अथवा भेद है । यह नय भूत और भविष्यत् की उपेक्षा करके केवल वर्तमान का ग्रहण करता है । पर्याय की अवस्थिति वर्तमान काल में ही होती है । भूत और भविष्यत् काल में
१. व्यवहारानुकूल्यात्तु प्रमाणानां प्रमाणता ।
नान्यथा बाध्यमानानां ज्ञानानां तत्प्रसंगतः ॥
- लघीयस्त्रय, ३.६.७०.
२. भेदं प्राधान्यतोऽन्विच्छन् ऋजुसुत्रनयो मतः ।
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- लघीयस्त्रय, ३. ६. ७१.
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