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सापेक्षवाद
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द्रव्य रहता है । मनुष्य कई बार तात्कालिक परिणाम की ओर झुक कर केवल वर्तमान को ही अपना प्रवृत्ति क्षेत्र बनाता है । ऐसी स्थिति में उसकी बुद्धि में ऐसा प्रतिभास होता है कि जो वर्तमान है वही सत्य है । भूत और भावी वस्तु से उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता । इसका अर्थ यह नहीं कि वह भूत और भावी का निषेध करता है । प्रयोजन के अभाव में उनकी ओर उपेक्षा-दृष्टि रखता है । वह यह मानता है कि वस्तु की प्रत्येक अवस्था भिन्न है | इस क्षण की अवस्था में और दूसरे क्षण की अवस्था में भेद है । इस क्षण की अवस्था इसी क्षण तक सीमित है । दूसरे क्षण की अवस्था दूसरे क्षण तक सीमित है। इसी प्रकार एक वस्तु की अवस्था दूसरी वस्तु की अवस्था से भिन्न है । 'कौआ काला है' इस वाक्य में कौए और कालेपन की जो एकता है उसकी उपेक्षा करने के लिए ऋजुसूत्रनय कहता है कि कौआ कौआ है और कालापन कालापन है । कौआ और कालापन भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ हैं । यदि कालापन और कौआ एक होते तो भ्रमर भी कोआ हो जाता क्योंकि वह काला है । ऋजुसूत्र क्षणिकवाद में विश्वास रखता है । इसलिए प्रत्येक वस्तु को अस्थायी मानता है । जिस प्रकार कालभेद से वस्तुभेद की मान्यता है उसी प्रकार देशभेद से भी वस्तुभेद की मान्यता है । भिन्न-भिन्न देश में रहने वाले पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं । इस प्रकार ऋजुसूत्र प्रत्येक वस्तु में भेद ही भेद देखता है । यह भेद द्रव्यमूलक न होकर पर्यायमूलक है । अतः यह नय पर्यायार्थिक है । यहीं से पर्यायार्थिक नय का क्षेत्र आरम्भ होता है ।
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शब्द -काल, कारक, लिंग, संख्या आदि के भेद से अर्थभेद मानना शब्दनय है । यह नय व आगे के दोनों नय शब्दशास्त्र
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