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जैन धर्म-दर्शन
और अभेद को मुख्य समझना, नैगम है ।" उदाहरण के लिए गुण और गुणी को लें। जीव गुणी है और सुख उसका गुण है । 'जीव सुखी है' इस कथन में कभी जीव और सुख के अभेद की प्रधानता होती है और भेद की अप्रधानता, कभी भेद की प्रधानता होती है और अभेद की अप्रधानता । दोनों विवक्षाओं का ग्रहण नैगमनय है । कभी एक प्रधान होती है तो कभी दूसरी, किन्तु होना चाहिए दोनों का ग्रहण | केवल एक का ग्रहण होने पर नैगम नहीं होता। दोनों का ग्रहण होने से यह सकलादेश हो जाएगा, क्योंकि सकलादेश में सम्पूर्ण वस्तु का कथन होता है, और वस्तु भेद और अभेद उभयरूप से ही सम्पूर्ण है । जब नैगम नय भेद और अभेद दोनों का ग्रहण करता है तो वह सम्पूर्ण वस्तु का ग्रहण करता है, यह स्वतः सिद्ध है । यह शंका ठीक नहीं । सकलादेश में प्रधान और गौण भाव नहीं होता । वह समान रूप से सब धर्मों का ग्रहण करता है, जब कि नैगम नय में वस्तु के धर्मों का प्रधान और गौण भाव से ग्रहण होता है ।
धर्म और धर्मी का गौण और प्रधान भाव से ग्रहण करना भी नैगमनय है । किसी समय धर्म की प्रधान भाव से विवक्षा होती है और धर्मी की गोण भाव से किसी समय धर्मी की मुख्य विवक्षा होती है और धर्म की गौण । इन दोनों दशाओं में नैगम की प्रवृत्ति होती है । 'सुख जीव-गुण है' इस वाक्य में सुख प्रधान है क्योंकि वह विशेष्य है और जीव गौण है क्योंकि वह सुख का विशेषण है । यहाँ धर्म का प्रधान भाव से ग्रहण किया गया है और धर्मी का गौण भाव से । 'जीव सुखी
१. अन्योन्यगुणभर्त कभेदाभेदरूपणात् ।
नमोऽर्थान्तरत्वोक्तो नंगमाभास इष्यते ॥ - लघीयस्त्रय,
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२.५.३६.
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