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सापेक्षवाद .
नहीं है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इस परम्परा की स्थापना की है।' तीसरी परम्परा तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की है।' इस परम्परा के अनुसार मूलरूप में नय के पाँच भद हैंनैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द। इनमें से प्रथम अर्थात् नैगमनय के देश-परिक्षेपी और सर्व-परिक्षेपी इस प्रकार के दो भेद हो जाते हैं तथा अन्तिम अर्थात् शब्दनय के सांप्रत, 'समभिरूढ और एवंभूत ऐसे तीन भेद हैं। सात भेदों वाली परम्परा अधिक प्रसिद्ध हैं अत: नगमादि सात भेदों के स्वरूप का विवेचन किया जायगा।
नैगम-गुण और गुणी, अवयव और अवयवी, जाति और जातिमान्, क्रिया और कारक आदि में भेद और अभेद की विवक्षा करना नैगमनय है। गुण और गुणी कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न । इसी प्रकार अवयव और अवयवी, जाति और जातिमान् आदि में भी कथंचित् भेद है और कथंचित् अभेद। किसी समय हमारी विवक्षा भेद की ओर होती है, किसी समय अभेद की ओर । जिस समय हमारी विवक्षा भेद की ओर होती है उस समय अभेद गौण हो जाता है और जिस समय हमारा प्रयोजन अभेद से होता है उस समय भेद गौण हो जाता है । भेद और अभेद का गौण और प्रधान भाव से ग्रहण करना नैगमनय है। दूसरे शब्दों में, भेद का ग्रहण करते समय अभेद को गौण समझना और भेद को मुख्य समझना और अभेद का ग्रहण करते समय भेद को गौण
१. सन्मतितर्क में नय प्रकरण. २. १.३४-३५.
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