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________________ ४०० बन धर्म दर्शन अर्थ क्यों है और शब्दादि तीन का विषय शब्द क्यों है ? अर्थनय और शब्दनय के भेद की यह सूझ नई नहीं है। आगमों में इसका उल्लेख है। नय के भेद: नय की मुख्य दृष्टियां क्या हो सकती हैं, यह हमने देखा। अब हम उसके भेदों का विचार करेंगे। आचार्य सिद्धसेन' ने लिखा है कि वचन के जितने भी प्रकार या मार्ग हो सकते हैं, नय के उतने ही भेद हैं। जितने नय के भेद हैं उतने ही मत हैं। इस कथन को यदि ठीक माना जाय तो नय के अनन्त प्रकार हो सकते हैं। इन अनन्त प्रकारों का वर्णन हमारी शक्ति की मर्यादा के बाहर है। मोटे तौर पर नय के कितने भेद होते हैं, यह बताने का प्रयत्न जैन दर्शन के आचार्यों ने किया है। यह तो हम देख चुके हैं कि द्रव्य और पर्याय में सारे भेद समा जाते हैं। द्रव्य और पर्यायों को अधिक स्पष्ट करने के लिए उनके अवान्तर भेद किये गये हैं। इन भेदों की संख्या के विषय में कोई निश्चित परम्परा नहीं है। जैन दर्शन के इतिहास को देखने पर हमें एतद्विषयक तीन परम्पराएं मिलती हैं । एक परम्परा सीधे तौर पर नय के सात भेद करती है। ये सात भेद हैं-नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। आगम और दिगम्बर ग्रन्थ इस परम्परा का पालन करते हैं। दूसरी परम्परा नय के छः भेद मानती है। इस परम्परा के अनुसार नैगम स्वतन्त्र नय १. जावइया वयणबहा, तावइया चेव होति णयवाया। जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया ।। __ -सन्मतितर्कप्रकरण, ३.४७. २. स्थानांग, ७.५५२; तत्त्वार्थ राजवार्तिक, १.३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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