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जैन धर्म-दर्शन
श्रुतज्ञान :
श्रुतज्ञान का अर्थ है वह ज्ञान जो श्रुत अर्थात् शास्त्रनिबद्ध है। आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं-अंगवाह्य और अंगप्रविष्ट । अंगवाह्य अनेक प्रकार का है । अंगप्रविष्ट के वारह भेद हैं।'
श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। इसका क्या अर्थ है ? श्रुतज्ञान होने के लिए शब्द-श्रवण आवश्यक है क्योंकि शास्त्र वचनात्मक है। शब्दश्रवण मति के अन्तर्गत है क्योंकि यह श्रोत्र का विषय है। जब शब्द सुनाई देता है तब उसके अर्थ का स्मरण होता है। शब्द-श्रवणरूप जो व्यापार है वह मतिज्ञान है। तदनन्तर उत्पन्न होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । इसीलिए मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है । मतिज्ञान के अभाव में शुतज्ञान नहीं हो सकता । श्रुतज्ञान का वास्तविक कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है। मतिज्ञान तो उसका बहिरंग कारण है। मतिजान होने पर भी यदि श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम न हो तो श्रुततान नहीं होता । अन्यथा जो कोई शास्त्र-वचन सुनता, सबको श्रुतज्ञान हो जाता। ____ अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट रूप से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है। अंगप्रविष्ट उसे कहते हैं जो साक्षात् तीर्थंकर द्वारा प्रकाशित होता है और गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध किया हआ होता है। आयु, बल, बुद्धि आदि की क्षीण अवस्था देख कर बाद में होने वाले आचार्य सर्वसाधारण के हित के लिए अंगप्रविष्ट ग्रन्थों को आधार बनाकर भिन्न-भिन्न विषयों पर १. श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ।-तत्त्वार्थसुत्र, १.२०.
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