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कर्म सिद्धान्त
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समय तक वैसे ही पड़े रहते हैं । कर्म के इस फलहीन काल को जैन परिभाषा में अबाधाकाल कहते हैं । अबाधाकाल के व्यतीत होने पर ही बद्धकर्म अपना फल देना प्रारम्भ करते हैं । कर्मफल का प्रारम्भ ही कर्म का उदय कहलाता है । कर्म अपने स्थिति बन्ध के अनुसार उदय में आते हैं एवं फल प्रदान कर आत्मा से अलग हो जाते हैं । इसी का नाम निर्जंग है । जिम कर्म की जितनी स्थिति का बंध होता है वह कर्म उतनी ही अवधि तक क्रमशः उदय में आता है। दूसरे शब्दों में, कर्मनिर्जरा का भी उतना ही काल होता है जितना कर्म स्थिति का । जब नवीन कर्म का उपार्जन रुक जाता है (संबर) तथा पूर्वोपार्जित सभी कर्म क्षीण हो जाते हैं (निर्जरा) तब प्राणी कर्म-मुक्त हो जाता है । आत्मा की इसी अवस्था को मुक्ति (मोक्ष) कहते हैं ।
कर्मप्रकृति अर्थात् कर्मफल :
जैन कर्मशास्त्र में कर्म की आठ मूल प्रकृतियां मानी गई हैं। ये प्रकृतियाँ प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। इन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं : १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और = अन्तराय । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घाती प्रकृतियाँ हैं क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ) का घात होता है । शेष चार अघाती प्रकृतियाँ हैं क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करतीं । इतना ही नहीं, ये आत्मा को ऐसा रूप प्रदान करती हैं जो उसका निजी नहीं अपितु पौलिक-भौतिक है । ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञानगुण का घात करता है । दर्शनावरण से
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