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जैन धर्म-दर्शन
( जिन कर्मों से आत्मा की ज्ञान-शक्ति आवृत होती है ) आदि अनेक रूपों में परिणति होता प्रकृति-बन्ध कहलाता है। प्रदेशबन्ध में कर्म-परमाणुओं का परिमाण अभिप्रेत है जबकि प्रकृतिबन्ध में कर्म - परमाणुओं की प्रकृति अर्थात् स्वभाव का विचार किया जाता है । भित्र-भित्र स्वभाव वाले कर्मों की भिन्न भिन्न परमाणु संख्या होती है। दूसरे शब्दों में, विभिन्न कर्मप्रकृतियों के विभिन्न कर्मप्रदेश होते हैं । जैन कर्मशास्त्रों में इस प्रश्न पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है कि किस कर्म प्रकृति के कितने प्रदेश होते हैं एवं उनका तुलनात्मक अनुपात क्या है । कर्मरूप से गृहीत पुद्गल - परमाणुओं के कर्मफल के काल एवं विपाक की तीव्रता - मन्दता का निश्चय आत्मा के अध्यवसाय अर्थात् कषाय की तीव्रता मन्दता के अनुसार होता है । कर्मविपाक के काल तथा तीव्रता - मन्दता के इस निश्चय को क्रमशः स्थिति-बन्ध तथा अनुभाग-बन्ध कहते हैं। कषाय के अभाव में कर्म-परमाणु आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं रह सकते । जिस प्रकार सूखे वस्त्र पर रज अच्छी तरह न चिपकते हुए उसका स्पर्श कर अलग हो जाती है उसी प्रकार आत्मा में कषाय की आर्द्रता न होने पर कर्म-परमाणु उससे सम्बद्ध न होते हुए केवल उसका स्पर्श कर अलग हो जाते हैं । ईर्यापथ ( चलना-फिरना आदि) से होने वाला इस प्रकार का निर्बल कर्मबन्ध अपरायिक बन्ध कहलाता है । सकषाय कर्म-बन्ध को सांपरायिक बन्ध कहते हैं । असांपरायिक बन्ध भव- भ्रमण का कारण नहीं होता । साम्परायिक बन्ध से ही प्राणी को संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है ।
कर्म का उदय और क्षय :
कर्म बँधते ही अपना फल देना प्रारम्भ नहीं कर देते । कुछ
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