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जैन धर्म-दर्शन
से जीव अनित्य है । जीव में जीवत्व सामान्य का कभी अभाव नहीं होता । वह किसी भी अवस्था में हो-जीव ही रहता है, अजीव नहीं होता । यह द्रव्यदृष्टि है । इस दृष्टि से जीव नित्य है । जीव किसी-न-किसी पर्याय में रहता है । एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय ग्रहण करता रहता है । इस दृष्टि से वह अशाश्वत है- अनित्य है ।
जीव सामान्य की नित्यता- अनित्यता के अतिरिक्त नारकादि जीवों की नित्यता-अनित्यता का भी प्रतिपादन किया गया है :
भगवन् ! नारक शाश्वत हैं या अशाश्वत ? गौतम ! कथंचित् शाश्वत हैं: कथंचित् अशाश्वत हैं । भगवन् ! यह कैसे ?
गौतम ! अव्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से शाश्वत हैं, व्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से अशाश्वत हैं । इसी प्रकार वैमानिक देवों के विषय में भी समझना चाहिए ।'
अव्युच्छित्तिनय का अर्थ है द्रव्यार्थिक नय और व्युच्छित्तिनय का अर्थ है पर्यायार्थिक नय । जैसे जीव सामान्य को द्रव्य की अपेक्षा से नित्य कहा गया है वैसे ही नारकादि जीवों को भी जीव द्रव्य की अपेक्षा से नित्य कहा गया है। जैसे जीव सामान्य को नरकादि गतिरूप पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य कहा
१. नेरइया णं भंते ! किं सासया असासया ?
गोयमा ! सिय सासया सिय असासया । से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! अव्वोच्छित्तिणय याए सासया, वोच्छित्तिणयट्ट्याए असासया । एवं जाव वेमाणिया । वही, ७. ३. २७६,
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