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कमसिद्धान्त
चारों ओर रहे हुए कर्मपरमाणुओं को कर्मरूप से ग्रहण करती है। इस प्रक्रिया का नाम आस्रव है। कषाय के कारण कर्मपरमाणुओं का आत्मा से मिल जाना अर्थात् आत्मा के साथ बंध जाना बन्ध कहलाता है। वैसे तो प्रत्येक प्रकार का योग अर्थात् प्रवृत्ति कर्मबन्ध का कारण है किन्तु जो योग क्रोधादि कषाय से युक्त होता है उससे होने वाला कर्मबन्ध दृढ होता है। कषायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल होता है । यह नाम मात्र का बन्ध है । इससे संसार नहीं बढ़ता।
योग अर्थात् प्रवृत्ति की तरतमता के अनुसार कर्मपरमाणुओं की मात्रा में तारतम्य होता है । बद्ध परमाणुओं की राशि को प्रदेश-बन्ध कहते हैं। इन परमाणुओं की विभिन्न स्वभावरूप परिणति को अर्थात् विभिन्न कार्यरूप क्षमता को प्रकृति-बन्ध कहते हैं । कर्मफल की भुक्ति की अवधि अर्थात् कर्म भोगने के काल को स्थितिबन्ध तथा कर्मफल की तीव्रतामन्दता को अनुभाग-बन्ध कहते हैं । कर्म बंधने के बाद जब तक वे फल देना प्रारम्भ नहीं करते तब तक के काल को अबाधा. काल कहते हैं। कर्मफल का प्रारम्भ ही कर्म का उदय है। ज्यों-ज्यों कर्मों का उदय होता जाता है त्यों-त्यों कर्म आत्मा से अलग होते जाते हैं। इसी प्रक्रिया का नाम निर्जरा है। जब । आत्मा से समस्त कर्म अलग हो जाते हैं तब उसकी जो अवस्था होती है उसे मोक्ष कहते हैं ।
जैन कर्मशास्त्र में प्रकृति-बन्ध के आठ प्रकार माने गये हैं अर्थात् कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ गिनाई गई हैं। ये प्रकृतियाँ प्राणी को भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं । इनके नाम इस प्रकार हैं : १ ज्ञानावरणीय,
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