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________________ ५०० जैन धर्म-दर्शन होते हुए भी शारीरिक प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं होता वह सयोगी केवली कहलाता है । यह तेरहवाँ गुणस्थान है । विदेह मुक्ति-तेरहवें गुणस्थान में स्थित सयोगी केवली जब अपनी देह से मुक्ति पाने के लिए विशुद्ध ध्यान का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देता है तब वह आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है । आत्मा की इसी अवस्था का नाम अयोगिकेवली गुणस्थान है । यह चारित्र-विकास अथवा आत्मविकास की चरम अवस्था है। इसमें आत्मा उत्कृष्टतम शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु पर्वत की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त कर अन्त में देहत्यागपूर्वक सिद्धावस्था को प्राप्त होती है। इसी का नाम परमात्मपद, स्वरूपसिद्धि, मुक्ति, निर्वाण अथवा मोक्ष है। यह आत्मा की सर्वांगीण पूर्णता, पूर्ण कृतकृत्यता एवं परम पुरुषार्थ-सिद्धि है। इसमें आत्मा को अनन्त एवं अव्याबाध अलौकिक सुख की प्राप्ति होती है । बन्ध और मोक्ष : जैन कर्मवाद में कर्मोपार्जन के दो कारण माने गये हैं : योग और कषाय । शरीर, वाणी और मन के सामान्य व्यापार को जैन परिभाषा में योग कहते हैं । दूसरे शब्दों में, जैन परिभाषा में प्राणी की प्रवृत्तिसामान्य का नाम योग है। कषाय मन का व्यापारविशेष है। यह क्रोधादि मानसिक आवेगरूप है । यह लोक कर्म की योग्यता रखने वाले परमाणुओं से भरा हुआ है । जब प्राणी अपने मन, वचन अथवा तन से किसी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब उसके आस-पास रहे हुए कर्मयोग्य परमाणुओं का आकर्षण होता है अर्थात् आत्मा अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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