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जैन धर्म-दर्शन २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय-ये चार प्रकृतियाँ घाती कहलाती हैं क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणों-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात होता है । शेष चार प्रकृतियाँ अघाती हैं क्योंकि ये किसी आत्मगुण का घात नहीं करतीं। ये शरीर से सम्बन्धित होती हैं । ज्ञानावरणीय प्रकृति आत्मा के ज्ञान अर्थात् विशेष उपयोगरूप गुण को आवृत करती है। दर्शनावरणीय प्रकृति आत्मा के दर्शन अर्थात् सामान्य उपयोगरूप गुण को आच्छादित करती है । मोहनीय प्रकृति आत्मा के स्वाभाविक सुख में बाधा पहुंचाती है । अन्तराय प्रकृति से वीर्य अर्थात् आत्मशक्ति का नाश होता है। वेदनीय कर्मप्रकृति शरीर के अनुकूल एवं प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख के अनुभव का कारण है। आयु कर्मप्रकृति के कारण नरक, तियंच, देव एवं मनुष्य भव के काल का निर्धारण होता है। नाम कर्मप्रकृति के कारण नरकादि गति, एकेन्द्रियादि जाति, औदारिकादि शरीर आदि की प्राप्ति होती है। गोत्र कर्मप्रकृति प्राणियों के आनुवंशिक उच्चत्व एवं नीचत्व का कारण है । कर्म की सत्ता मानने पर पुनर्जन्म की सत्ता भी माननी पड़ती है। पुनर्जन्म अथवा परलोक कर्म का फल है । मृत्यु के बाद प्राणी अपने गति नाम कर्म के अनुसार पुनः मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक अथवा देव गति में उत्पन्न होता है । आनुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्ति-स्थान पर पहुंचा देता है । स्थानान्तरण के समय जीव के साथ दो प्रकार के सूक्ष्म शरीर रहते हैं : तेजस और कार्मण । औदारिकादि स्थूल शरीर का निर्माण अपने उत्पत्ति-स्थान पर पहुंचने के बाद प्रारम्भ होता है । इस प्रकार जैन कर्मशास्त्र में पुन
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