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________________ ३० जैन धर्म-दर्शन भूताद्वैतवाद का निराकरण करके आत्मा की स्वतन्त्र सिद्धि की गई है । आत्माद्वैतवाद के स्थान पर नानात्मवाद की स्थापना की गई है । ईश्वरवाद का खण्डन करके संसार को अनादिअनन्त सिद्ध किया गया है। क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद, अज्ञानवाद आदि का निराकरण करके तर्कसंगत क्रियावाद की स्थापना की गई है । समवायांग तथा नन्दीसूत्र में सूत्रकृतांग का परिचय देते हुए बताया गया है कि इसमें स्वमत, परमत, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सौंवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष आदि के विषय में निर्देश है, नवदीक्षितों के लिए बोधवचन हैं, १५० क्रियावादी मतों, ८४ अक्रियावादी मतों, ६७ अज्ञानवादी मतों और ३२ विनयवादी मतों इस प्रकार सब मिलाकर ३६३ अन्य दृष्टियों अर्थात् अन्ययूथिक मतों की चर्चा है । स्थानांग एवं समवायांग संग्रहात्मक कोश के रूप में हैं । स्मृति अथवा धारणा की सुगमता की दृष्टि से या विषयों को ढूंढ़ने की सरलता की दृष्टि से इन दो अंगग्रन्थों की योजना की गई। स्थानांग के दस अध्ययनों में से प्रथम में एक संख्यावाले, द्वितीय में दो संख्यावाले यावत् दशम में दस संख्या वाले पदार्थों अथवा क्रियाओं का निरूपण है । समवायांग की शैली भी इसी प्रकार की है। इसमें दस से आगे की संख्यावाले पदार्थों का भी निरूपण है । पालिग्रन्थ निरूपण - शैली भी इसी प्रकार की है । अगुत्तरनिकाय की व्याख्याप्रज्ञप्ति अथवा भगवती इकतालीस शतकों में विभक्त है । इसमें दार्शनिक, आचार-सम्बन्धी, ज्ञान-सम्बन्धी, तार्किक, लोक-सम्बन्धी, गणित-सम्बन्धी, राजनीतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि अनेक विषयों पर सामग्री उपलब्ध है तथा भगवान् महावीर, गोशाल, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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