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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
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गवेषण एवं धारण की चर्चा है । 'अवग्रहप्रतिमा' नामक सप्तम अध्ययन भी दो उद्देशों में विभक्त है जिनमें विना अनुमति के किसी भी वस्तु को ग्रहण करने का निषेध किया गया है । द्वितीय चूला के प्रथम अध्ययन 'स्थान' में शरीर की हलनचलनरूप क्रिया का नियमन करनेवाली चार प्रकार की प्रतिमाएं अर्थात् प्रतिज्ञाएं वर्णित हैं जिनमें संयमी की स्थिति अपेक्षित है । द्वितीय अध्ययन 'निषीधिका' में स्वाध्यायभूमि के सम्बन्ध में चर्चा है । 'उच्चार-प्रस्रवण' नामक तृतीय अध्ययन में मल-मूत्र के त्याग की अहिंसक विधि बतलाई गई है । 'शब्द' नामक चतुर्थ अध्ययन में विविध वाद्यों, गीतों, नृत्यों, उत्सवों आदि के शब्दों को सुनने की लालसा से यत्र-तत्र जाने का निषेध किया गया है । 'रूप' नामक पंचम अध्ययन में विविध प्रकार के रूपों को देखने की लालसा का प्रतिषेध किया गया है । षष्ठ अध्ययन 'परक्रिया' में अन्य द्वारा शारीरिक संस्कार, चिकित्सा आदि कराने का निषेध किया गया है । सप्तम अध्ययन 'अन्योन्यक्रिया' में परस्पर चिकित्सा आदि करने-कराने का प्रतिषेध किया गया है । 'भावना' नामक तृतीय चूला में पाँच महाव्रतों की भावनाओं के साथ ही तदुपदेशक भगवान् महावीर का जीवनदर्शन भी दिया गया है । 'विमुक्ति' नामक चतुर्थ चूला में मोक्ष की चर्चा है। मुनि को आंशिक एवं सिद्ध को पूर्ण मोक्ष होता है । समुद्र के समान यह संसार दुस्तर है । जो मुनि इसे पार कर लेते हैं वे अन्तकृत - विमुक्त कहे जाते हैं ।
सूत्रकृतांग में दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह तथा द्वितीय में सात अध्ययन हैं । इस सूत्र में मुख्यतया तत्कालीन दार्शनिक मन्तव्यों का निराकरण किया गया है।
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