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________________ जैन धर्म-दर्शन संस्कृति की प्राचीन परम्परा है। यहाँ पर अनेक प्रकार की विचारधाराएँ बहीं । प्राचीनता और नवीनता का संघर्ष बराबर होता रहा । इस संघर्ष में नवीनता पनपती रही, किन्तु प्राचीनता सर्वथा नष्ट न हो सकी। नवीनता और प्राचीनता दोनों का ही यथोचित सम्मान होता रहा। किसी समय प्राचीनता को विशेष सम्मान मिला तो कभी नवीनता का विशेष आदर हुआ । विविधताओं के वैसे तो अनेक रूप रहे हैं, किन्तु ये सारी विविधताएँ दो रूपों में बाँटी जा सकती हैं : एक वैदिक परम्परा और दूसरी अवैदिक परम्परा । ये दोनों परम्पराएं क्रमशः ब्राह्मण परम्परा और श्रमण परम्परा के नाम से प्रसिद्ध हैं । ब्राह्मण परम्परा अधिक प्राचीन है या श्रमण परम्परा ? इस प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर देना जरा कठिन है । ब्राह्मण परम्परा का प्राचीनतम उपलब्ध आधार वैदिक साहित्य है । वेदों से अधिक प्राचीन साहित्य दुनिया के किसी भी भाग में उपलब्ध नहीं है । दुनिया की कोई भी दूसरी संस्कृति इतने प्राचीन साहित्य का दावा नहीं कर सकती। यह एक ऐतिहासिक सत्य है । इसी सत्य के आधार पर ब्राह्मण संस्कृति का यह दावा है कि वह दुनिया की प्राचीनतम संस्कृति है । दूसरी ओर श्रमण संस्कृति के उपासक यह दावा करते हैं। कि श्रमण संस्कृति किसी भी दृष्टि से वैदिक संस्कृति से कम प्राचीन नहीं है । औपनिषदिक साहित्य, जो कि वेदों (संहितामंत्रभाग) के बाद का साहित्य है, श्रमण परम्परा से पूर्णरूप से प्रभावित है। वैदिक मान्यताओं का उपनिषद् के तत्त्वज्ञान से बहुत विरोध है । जो आचार और विचार वेदों में उपलब्ध होते हैं उनसे भिन्न आचार-विचार उपनिषदों में मिलते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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