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सापेक्षवाद
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एक-एक प्रदेश कहलाता है। पुद्गल का एक परमाणु जितना स्थान घेरता है वह एक प्रदेश है। जैन दर्शन के अनुसार कुछ द्रव्यों के प्रदेश नियत हैं और कुछ के अनियत । जीव के प्रदेश सर्व देश और सर्व काल में नियत हैं। उनकी संख्या न कभी बढ़ती है, न कभी घटती है। वे जिस शरीर का व्याप्त करते हैं उसका परिमाण घट-बढ़ सकता है, किन्तु प्रदेशों की संख्या उतनी ही रहती है । यह कैसे हो सकता है, इसका समाधान करने के लिए दीपक का दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे एक ही दीपक के उतने ही प्रदेश छोटे कमरे में भी आ सकते हैं और बड़े कमरे में भी, उसी प्रकार एक ही आत्मा के उतने ही प्रदेश छोटे शरीर को भी व्याप्त कर सकते हैं और बड़े शरीर को भी । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के प्रदेश भी नियत हैं । पुद्गलास्तिकाय के प्रदशों (परमाणुओं) का कोई निश्चित नियम नहीं। उनमें स्कन्ध के अनुसार न्यूनाधिकता होती रहती है । पर्याय के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। वे नियत संख्या में नहीं मिलते। जिस प्रकार पर्यायदृष्टि से भगवान् महावीर ने वस्तु का विचार किया है उसी प्रकार प्रदेशदृष्टि से भी पदार्थ का चिन्तन किया है। उन्होंने कहा है कि मैं द्रव्यदृष्टि से एक हूँ, ज्ञान और दर्शनरूप पर्यायों की दृष्टि से दो हुँ, प्रदेशों की दृष्टि से अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ । यहाँ पर महावीर ने प्रदेश दृष्टि का उपयोग एकता की सिद्धि के लिए किया है। संख्या की दृष्टि से प्रदेश नियत हैं, अतः उस दृष्टि से आत्मा अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है । प्रदेशदृष्टि का उपयोग अनेकता की सिद्धि के लिए भी किया जाता है । द्रव्यदृष्टि से वस्तु एकरूप मालूम होती है, किन्तु वही वस्तु प्रदेशदृष्टि से अनेकरूप दिखाई देती है, क्योंकि प्रदेश अनेक हैं । आत्मा द्रव्यदृष्टि से एक है किन्तु प्रदेशदृष्टि से अनेक है,
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