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अकलंकदेव की दार्शनिक कृतियाँ
विषय समाविष्ट हैं ।
सिद्धिविनिश्चय - इस ग्रन्थ में बारह प्रस्ताव हैं। प्रथम प्रस्ताव का विषय प्रत्यक्षसिद्धि है । द्वितीय प्रस्ताव में सविकल्पसिद्धि, तृतीय में प्रमाणान्तरसिद्धि, चतुर्थ में जीवसिद्धि, पंचम में जल्पसिद्धि, षष्ठ में हेतुलक्षणसिद्धि, सप्तम में शास्त्रसिद्धि, अष्टम में सर्वज्ञसिद्धि, नवम में शब्दसिद्धि, दशम में अर्थनयसिद्धि, एकादश में शब्दनयसिद्धि और द्वादश में निक्षेपसिद्धि की गई है । इस प्रकार इस ग्रन्थ का सिद्धिविनिश्चय नाम सार्थक है ।
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प्रमाण-संग्रह - इस ग्रन्थ में नौ प्रस्ताव एवं ८७ कारिकाएं हैं । प्रथम प्रस्ताव में प्रत्यक्ष का लक्षण, श्रुत का प्रत्यक्ष-अनुमान-आगमपूर्वकत्व, प्रमाण का फल आदि विषय वर्णित हैं । द्वितीय प्रस्ताव में स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान का प्रामाण्य, तर्क का लक्षण आदि विषयों का प्रतिपादन है । तृतीय प्रस्ताव अनुमान के अवयव, साध्य एवं साधन के लक्षण, सामान्य-विशेषात्मक वस्तु की साध्यता, अनेकान्तात्मक वस्तु में दिये जाने वाले संशयादि दोषों की समीक्षा आदि से सम्बन्धित है । चतुर्थ प्रस्ताव हेतुविषयक है । पंचम प्रस्ताव में हेत्वाभास का विवेचन है । षष्ठ प्रस्ताव में वाद का स्वरूप बताते हुए जयपराजयव्यवस्था आदि से सम्बन्धित विषयों का व्याख्यान किया गया है। सप्तम प्रस्ताव में प्रवचन का लक्षण, सर्वज्ञ की सिद्धि, अपौरुषेयत्व का खण्डन आदि विषयों का प्रतिपादन है । अष्टम प्रस्ताव में सप्तभंगी का निरूपण करते हुए नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत इन सात नयों का कथन किया गया है । अन्तिम प्रस्ताव में प्रमाण, नय तथा निक्षेप का उपसंहार है ।
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तत्त्वार्थराजनार्तिक - उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र जैन तत्त्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल, आत्मविद्या, पदार्थविज्ञान, कर्मशास्त्र आदि समस्त महत्त्वपूर्ण विषयों का लघु कोश है । इस पर पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि नामक एक संक्षिप्त किन्तु अति महत्त्वपूर्ण टीका है। इस टीका के आधार पर अकलंक ने १६००० श्लोकप्रमाण एक विस्तृत व्याख्या का निर्माण किया जो राजवार्तिक के नाम से प्रसिद्ध है । इस तत्त्वार्थराजवार्तिक में दर्शन के प्रत्येक विषय पर किसी-न-किसी रूप में प्रकाश डाला गया है । कहीं-कहीं खण्डन - मण्डन की प्रधानता है । इस
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