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तत्त्वविचार
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हो जाता है । उदाहरण के लिए रामानुज का विशिष्टाद्वैत लीजिए । रामानुज के मत से तीन तत्व अन्तिम और वास्तविक हैं- अचित्, चित् और ईश्वर । ये तीन तत्त्व 'तत्त्वत्रय' के नाम से प्रसिद्ध हैं । यद्यपि तीनों तत्त्व समानरूप से सत् एवं वास्तविक हैं तथापि अचित् और चित् ईश्वराश्रित हैं । यद्यपि वे अपने आप में द्रव्य हैं किन्तु ईश्वर के सम्बन्ध की दृष्टि से वे उसके गुण हो जाते हैं । वे ईश्वर शरीर कहे जाते हैं और ईश्वर उनकी आत्मा है । इस प्रकार ईश्वर चिदचिद्विशिष्ट है । चित् और अचित् ईश्वर के शरीर का निर्माण करते हैं और तदाश्रित हैं।" इस मत के अनुसार भ ेद की सत्ता तो अवश्य रहती है किन्तु अभदाश्रित होकर । अभ ेद् प्रधानरूप से रहता है और भेद तदाश्रित होकर गौणरूप से । भ ेद का स्थान स्वतन्त्र न होकर अभ ेद पर अवलम्बित है । भेद परतंत्र होता है और अभद स्वतंत्र । भद अभ ेद की दया पर जीता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं होता । भ ेद और अभ ेद को भिन्न माननेवाला पक्ष दोनों को स्वतंत्र रूप से सत् मानता हैं जबकि उपर्युक्त पक्ष अभ ेद को प्रधान मानकर भ ेद को गौण एवं पराश्रित बना देता है । उसकी दृष्टि में अभेद का विशेष महत्त्व रहता है । भ ेद की मान्यता तो है किन्तु इसलिए कि वह अभ ेद के आधार पर टिका हुआ है ।
जैन दृष्टि इससे भिन्न है । भ ेद और अभ ेद का सच्चा समन्वय जैन दर्शन की विशिष्ट देन है । जब हम भेदाभेदवाद की व्याख्या करते हैं तो उसका अर्थ होता है-भेदविशिष्ट अभेद और अभेदविशिष्ट भेद । भेद और अभेद दोनों समानरूप से सत् हैं। जिस प्रकार अभेद वास्तविक है ठीक उसी प्रकार भेद वास्तविक
१. सर्वं परमपुरुषेण सर्वात्मना - श्रीभाष्य २.१.६.
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