________________
कर्म सिद्धान्त
૪૬૨
८ प्रचलाप्रचला और है. स्त्यानद्धि - स्त्यानगृद्धि । आँख के द्वारा पदार्थों के सामान्य धर्म के ग्रहण को चक्षुर्दर्शन कहते हैं । इसमें पदार्थ का साधारण आभासमात्र होता है । चक्षुर्दर्शन को आवृत करने वाला कर्म चक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है । आँख को छोड़कर अन्य इन्द्रियों तथा मन से जो पदार्थों का सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुर्दर्शन कहते हैं । इस प्रकार के दर्शन को आवृत करने वाला कर्म अचक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है । इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा न रखते हुए आत्मा द्वारा रूपी पदार्थों का सामान्य बोध होने का नाम अवधिदर्शन है । इस प्रकार के दर्शन को आवृत करने वाला कर्म अवधिदर्शनावरण कहलाता है । संसार के अखिल त्रैकालिक पदार्थों का सामान्यावबोध केवलदर्शन कहलाता है । इस प्रकार के दर्शन को आवृत करने वाला कर्म केवलदर्शनावरण के नाम से प्रसिद्ध है । निद्रा आदि पाँच अवस्थाएं भी दर्शनावरणीय कर्म का ही कार्य है । जो सोया हुआ प्राणी थोड़ी-सी आवाज से जाग जाता है अर्थात् जिसे जगाने में परिश्रम नहीं करना पड़ता उसकी नींद को निद्रा कहते हैं । जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उस कर्म का नाम भी निद्रा है । जो सोया हुआ प्राणी बड़े जोर से चिल्लाने, हाथ से जोर से हिलाने आदि से बड़ी मुश्किल से जागता है उसकी नींद एवं तन्निमित्तक कर्म दोनों को निद्रा-निद्रा कहते हैं । खड़ेखड़े या बैठे-बैठे नींद लेने का नाम प्रचला है । उसका हेतुभूत कर्म भी प्रचला कहलाता है । चलते-फिरते नींद लेने का नाम प्रचलाप्रचला है | तन्निमितभत कर्म को भी प्रचलाप्रचला कहते हैं। दिन में अथवा रात में सोचे हुए कार्यविशेष को निद्रावस्था में सम्पन्न करने का नाम स्त्यानद्धि - स्त्यानगृद्धि है । जिस कर्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org