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________________ २१८ जैन धर्म-दर्शन तत्त्वों अथवा पदार्थों की विद्यमानता होते हुए भी स्थूल पदार्थों का यथावसर प्रवेश तथा निष्क्रमण हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि आकाश के आधार के बिना किसी पदार्थ की सत्ता ही संभव नहीं है तो प्रश्न होगा कि आकाश को सामान्य आधार न मानने पर क्या समस्त तत्त्वों का अभाव हो जायगा ? क्या कोई भी द्रव्य लोक में न रहेगा? ऐसा नहीं हो सकता। जो सत् है वह असत् नहीं हो सकता। समस्त द्रव्य अपने स्वभाव से ही लोक में विद्यमान हैं। उनको स्थान अथवा आधार प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ, यदि उन्हें पहले से ही स्थान मिला हुआ न होता तो स्थान देने की आवश्यकता होती तथा स्थान देनेवाले किसी अन्य द्रव्य की सत्ता स्वीकार करनी पड़ती। समस्त जड़ एवं चेतन पदार्थ एक-दूसरे के आधार अथवा आकर्षण से लोक में स्थित हैं। इसके लिए आकाश के रूप में किसी स्थानदाता की कल्पना करना निरर्थक है। हाँ, आवरणाभाव के रूप में आकाश को शून्य अथवा अवस्तु मानना अनुपयुक्त नहीं है। अनुभव के आधार पर सहज ही ऐसा माना जा सकता है। जब आकाश कोई भावात्मक तत्त्व नहीं है तब आकाश के आधार पर लोकाकाश और अलोकाकाश की कल्पना न करते हुए केवल लोक और अलोकरूप विभाजन को ही स्वीकार करना चाहिए। जीवादि तत्त्वों का समूह ( जिसमें तदन्तर्गत सापेक्ष रिक्त स्थान भी समाविष्ट है) लोक है तथा उनका अभाव अलोक है। अलोक कोई भावात्मक तत्त्व नहीं है अपितु केवल अभावात्मक शून्य है। लोक सान्त अर्थात् सीमित है। अलोक अवस्तु है अतः उसके विषय में विशेष विचार करना अनावश्यक है । लोक अति विशाल है। जीव अथवा पुद्गल की गति या स्थिति लोक में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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