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________________ १३० जैन धर्म-दर्शन संज्ञा, संस्कार और रूप इन पांचों स्कन्धों का समुदाय ही आत्मा है।' जिसे हम बाह्यपदार्थ कहते हैं वह क्षणिक परमाणुपुज के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह समुदायवाद बौद्ध दर्शन में संघातवाद के नाम से प्रसिद्ध है। भिन्न-भिन्न निरंश तत्त्वों का समुदाय संघात कहलाता है । आत्मा नाम का कोई एक अखण्ड और स्थायी द्रव्य नहीं है। इसी को अनात्मवाद या पुद्गलनरात्म्य कहा गया है । बाह्य पदार्थ क्षणिक और निरंश परमाणुओं का एक समुदाय मात्र है। इसी का नाम धर्मनैरात्म्य है। यह देश की अपेक्षा से हुआ। इसी प्रकार काल की अपेक्षा से मन्तानवाद का समर्थन किया जाता है। चित्त और परमाणु की सन्तति को देखकर हम 'यह वही है। ऐसा कहते हैं । वास्तव में यह यह है और वह वह है। यह वही कैसे हो सकता है जब कि सब कुछ क्षणिक है। हमारा जितना व्यवहार है वह सब संघातवाद और सन्तानवाद पर आश्रित है। संघातवाद से देशीय एकता का बोध होता है और संतानवाद से कालिक एकता का ज्ञान होता है । अभेद अथवा अन्वय सन्तान-जन्य है। वास्तव में प्रत्येक ज्ञान और पदार्थ निरंश एवं भिन्न है । एकता संतान के अतिरिक्त कुछ नहीं है। संतान-परम्परा से कुछ समान पदार्थों को देखकर उनमें एकता का आरोप कर देते हैं। वास्तव में सब क्षणिक हैं एवं एकदूसरे से अत्यन्त भिन्न हैं। परिवर्तन की शीघ्रता एकता या अन्वय की भ्रान्ति उत्पन्न करती है। प्रत्येक पदार्थ इतनी तीव्रगति से परिवर्तित होता रहता है कि हम उस परिवर्तन का ज्ञान नहीं कर पाते और उसे नित्य या स्थायी समझते रहते हैं । जिस प्रकार घूमता हुआ रथ का चक्र केवल एक बिन्दु पर घूमता है और रुकते समय भी केवल एक बिन्दु पर रुकता है उसी प्रकार - १. षड्दर्शनसमुच्चय, २-५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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