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________________ ३३० जैन धर्म-दर्शन अनेकान्तवाद या विभज्यवाद कहते हैं। बुद्ध का विभज्यवाद उतना आगे नहीं बढ़ सका जितना कि महावीर का विभज्यवाद अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के रूप में आगे बढ़ गया। महावीर ने इस दृष्टि पर बहुत भार दिया, जबकि बुद्ध ने यथावसर उसका प्रयोग तो कर लिया परन्तु उसे विशेष महत्त्व न दिया। बुद्ध के विभज्यवाद और महावीर के अनेकान्तवाद में कितनी अधिक समानता है, इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण दिये जाते हैं : जयन्ती-भगवन् ! सोना अच्छा है या जागना ? महावीर-जयन्ति ! कुछ जीवों का सोना अच्छा है और कुछ जीवों का जागना अच्छा है । जयन्ती-यह कैसे? महावीर-जो जीव अधर्मी हैं, अधर्मानुग हैं, अधर्मिष्ठ हैं, अधर्माख्यायी हैं, अधर्मप्रलोकी हैं, अधर्मप्ररञ्जन हैं, अधर्मसमाचार हैं, अधार्मिक वृत्तियुक्त हैं वे सोते रहें, यही अच्छा है, क्योंकि यदि वे सोते रहेंगे तो अनेक जीवों को पीड़ा नहीं होगी। इस प्रकार वे स्व, पर और उभय को अधार्मिक क्रिया में नहीं लगाएंगे, अतएव उनका सोना अच्छा है । जो जीव धार्मिक हैं, धर्मानुग हैं, यावत् धार्मिक वृत्तिवाले हैं उनका जागना अच्छा है, क्योंकि वे अनेक जीवों को सुख देते हैं। स्व, पर और उभय को धार्मिक कार्य में लगाते हैं । अतएव उनका जागना अच्छा है। ___जयन्ती-भगवन् ! बलवान् होना अच्छा है या निर्बल होना ? महावीर-जयन्ति ! कुछ जीवों का बलवान् होना अच्छा है और कुछ जीवों का निर्बल होना अच्छा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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