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________________ ४२० जैन धर्म-दर्शन के बाद बुद्धिमान् और मूर्ख दोनों के दुःख का नाश हो जाता है। यदि कोई कहे कि मैं शील, व्रत, तप अथवा ब्रह्मचर्य के द्वारा अपरिपक्व कर्मों को परिपक्व करूंगा अथवा परिपक्व कर्मों को भोगकर नामशेष कर दूंगा तो ऐसा कदापि नहीं हो सकता । सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र), उपासकदशांग आदि जैन आगमों में भी नियतिवाद का ऐसा ही वर्णन है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में नियतिवाद का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जिस वस्तु को जिस समय जिस कारण से जिस रूप में उत्पन्न होना होता है वह वस्तु उस समय उस कारण से उस रूप में निश्चित उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में नियति के सिद्धान्त का कौन खण्डन कर सकता है ? २ चूंकि संसार की समस्त वस्तुएं नियत रूपवाली होती हैं इसलिए नियति को ही उनका कारण मानना चाहिए। नियति के बिना कोई भी कार्य नहीं होता, भले ही काल आदि समस्त कारण उपस्थित क्यों न हों। .. यदृच्छावाद-यदृच्छावाद का मन्तव्य है कि किसी कारणविशेष के बिना ही किसी कार्यविशेष की उत्पत्ति हो जाती है। किसी घटना अथवा कार्यविशेष के लिए किसी निमित्त अथवा कारणविशेष की आवश्यकता नहीं होती। किसी निमित्त कारण के अभाव में ही कार्य उत्पन्न हो जाता है। कोई भी घटना सकारण अर्थात् किसी निश्चित कारण का सद्भाव होने से नहीं अपितु अकारण अर्थात् अकस्मात् ही होती है। जैसे कांटे की तीक्ष्णता अनिमित्त अर्थात किसी निमित्तविशेष के बिना ही १. सूत्रकृतांग, श्रु. २, अ. १, ६; भगवतीसूत्र, श. १५; उपासक दशांग, अ. ६-७. २. शास्त्रवासिमुच्चय, १७४, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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