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जैन धर्म-दर्शन केवली की दृष्टि से इसका ग्रहण किया गया है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म के क्षय से क्रमशः अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रादुर्भूत होता है ।' इन चार घातिकर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत होनेवाली
चेतना की विशेष शक्तियों को ही अनन्त चतुष्टय का नाम दिया गया है । वैसे जीव या आत्मा का लक्षण चेतना ही है। ज्ञानोपयोग : ___ ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में यह अन्तर है कि ज्ञान साकार है, जब कि दर्शन निराकार है। ज्ञान सविकल्पक है
और दर्शन निर्विकल्पक है। उपयोग की सर्वप्रथम भूमिका दर्शन है जिसमें केवल सत्ता का भान होता है । इसके बाद क्रमशः उपयोग विशेषग्राही होता जाता है। यह ज्ञानोपयोग है। पहले दर्शन होता है फिर ज्ञान होता है। इसीलिए दर्शन निराकार और निर्विकल्पक है और ज्ञान साकार और सविकल्पक है। दर्शन के पहले ज्ञान को ग्रहण इसलिए किया जाता है कि ज्ञान निर्णयात्मक होने के कारण अधिक महत्त्व रखता है। वैसे उत्पत्ति की दृष्टि से ज्ञान का स्थान बाद में है और दर्शन का स्थान पहले है।
ज्ञानोपयोग के दो भेद हैं-स्वभावज्ञान और विभावज्ञान । स्वभावज्ञान पूर्ण होता है। उसे किसी भी इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रहती। सीधा आत्मा से होनेवाला पूर्ण ज्ञान स्वभावज्ञान - है । यह ज्ञान प्रत्यक्ष एवं साक्षात् है । इसी ज्ञान को जैन दर्शन १. मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । -वही,१०. १.. २. प्रमाणनयतत्त्वालोक, २. ७. ३. णाणुवओगो दुविहो, सहावणाणं विभावणाणंति ।-नियमसार,१०.
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